SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्मरणाध्य श्राचार्य पं० सुखलाल सघवी मेरे स्मरणग्रन्थ में प्रेमीजी का स्मरण एक अध्याय है, जो प्रति विस्तृत तो नही है, पर मेरे जीवन की दृष्टि मे महत्त्व का और सुखद अवश्य है । इस सारे ग्रव्याय का नवनीत तीन वातो में है, जो प्रेमीजी के इतने लम्बे परिचय मं मैने देखी है और जिनका प्रभाव मेरे मानम पर गहरा पडा है । वे ये है (१) अथक विद्याव्यामग । (२) सरलता और (३) सर्वया साम्प्रदायिक और एकमात्र मत्यगवेपी दृष्टि । प्रेमीजी का परिचय उनके 'जनहितैपी' गत लेखो के द्वारा शुरू हुआ । मैं अपने मित्रो और विद्यार्थियों के साथ गरे में रहता था । तत्र माय-प्रात की प्रार्थना में उनका निम्नलिखित पद्य रोज पढ़े जाने का क्रम था, जिसन हम सबको बहुत आकृष्ट किया था दयामय ऐमी मति हो जाय । त्रिभुवन की कल्याण-कामना, दिन-दिन बढती जाय ॥१॥ श्रीरों के सुख को सुख समझू, सुख का करूँ उपाय ॥ अपने दुख सब सहूँ किन्तु, परदुख नहि देखा जाय ॥२॥ प्रथम श्रज्ञ अस्पृश्य श्रधर्मी, दुखी श्रीर श्रसहाय ॥ वन जाय || ३ || समुदाय ॥ सवके श्रवगाहन हित मम उर सुरसरि सम भूला भटका उलटी मति का, जो है जन उसे सुझाऊँ सच्चा सत्पय, निज सर्वस्व सत्य धर्म हो सत्य कर्म हो, सत्य ध्येय वन जाय ॥ सत्यान्वेषण में ही 'प्रेमी', जीवन यह लग जाय ॥५॥ लगाय ॥४॥ प्रेमीजी के लेखो ने मुझको इतना प्राकृष्ट किया था कि में जहाँ कही रहता, 'जैन- हितैषी' मिलने का प्रायोजन कर लेना और उसका प्रचार भी करता । मेरी ऐतिहासिक दृष्टि की पुष्टि मे प्रमीजी के लेखो का थोडा हिम्सा श्रवश्य है । प्रेमीजी के नाम के साथ 'पण्डित' विशेषण छपा देखकर उस जमाने में मुझे श्राश्चर्य होता था कि एक तो ये पण्डित है और दूसरे जैन परम्परा के । फिर इनके लेखों में इतनी तटस्थता और निर्भयता कहाँ से ? क्योकि तबतक जितने भी मेरे परिचित जैन-मित्र और पण्डित रहे, जिनकी मख्या कम न थी, उनमें से एक-प्राध अपवाद छोडकर किमी को भी मैने वैमा श्रमाम्प्रदायिक और निर्भय नही पाया था । इसलिए मेरी ऐसी धारणा वन गई थी कि जैन पण्डित भी हो श्री निर्भय साम्प्रदायिक हो, यह दुःसम्भव है । प्रेमीजी के लेखो ने मेरी वारणा को क्रमण गलत सावित किया । यही उनके प्रति श्राकर्षण का प्रथम कारण था । १९१८ में में पूना में था। रात को अचानक प्रेमीजी सकुटुम्ब मुनि श्री जिनविजय जी के वासस्थान पर श्राये । मैने उक्त पद्य की अन्तिम कडी बोल कर उनका स्वागत किया। उन्हें कहीं मालूम था कि मेरे पद्य को कोई प्रार्थना में भी पढता होगा । इम प्रसग ने परिचय की परोक्षता को प्रत्यक्ष रूप में बदल दिया और यही सूत्रपात दृढ़ भूमि बनता गया । उनके लेखो मे उनकी बहुश्रुतता और यमाम्प्रदायिकता की छाप तो मन पर पडी ही थी। इस
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy