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________________ जैन साहित्य का भौगोलिक महत्त्व विराट नगर, कापिलनगर, ( पाच ) लदेन ) वाराणमी, द्वारिका, मिथिला, श्रहिच्छत्रा, कापिल्य, पाडुमथुरा, हत्थकप्प, मातपुरी, इन नगरो के नामो के साथ मम्मेत, उज्जयत, शत्रुजय, नील पर्वत, वैभारगिरि आदि पर्वतो का भी निर्देश पाया जाता है । ७वे अग उपासक दशा में कपिलपुर, पोलामपुर, यह नाम उपरोक्त नामो के अतिरिक्त है । तगड दशासूत्र में कुछ विशेष स्थलो के नाम निम्नोक्त श्राये है। राजगृह में मुद्गरपाणि यक्ष का मंदिर, पोलामपुर, भहिलपुर | ४७७ विपाक नामक ११वे श्रग में विशेष नाम इम प्रकार है- मृगाग्राम, पुरिमताल, माभाजनी, पाटलिम्बड, मोरिकपुर, रोहीतक, वर्धमानपुर, वृषभपुर, वीरपुर, विजयपुर, सौगधिका, कनकपुर, महापुर, सुघोप । रायपसेणडय नामक उपाग मे ग्रामलकप्पा नगरी और मेयविया नगरी का नाम आता है। ठणागमूत्र में गंगा नदी में यमुना, मयू, आदी, कोशी, मही, इन ५ नदियो के मिलने का एव सिंधु नदी मे सेद्रु, भावितस्ती, भामा, एंगवती और चन्द्रभागा इन पांच नदियो के मम्मिलित होने का उल्लेख है । नमवायाग सूत्र मे ७ पर्वत एव १४ नदिया के नाम, गगासिधु के उद्गम एव प्रपातस्थल (समवाय २५वाँ ) आदि का वर्णन है । भगवान महावीर के विहारस्थल के प्रसग से कल्पसूत्र में पृष्टचपा, भद्रिका, पावा आदि का उल्लेख किया है । विहार के मव स्थानों का परिचय आधुनिक अन्वेषण के साथ मुनि कल्याणविजय जी ने अपने 'श्रमण भगवान महावीर नामक ग्रन्थ के परिशिष्ट में 'विहारस्थलनामकोप' के शीर्षक से दिया है । यहाँ लेख विस्तारभय से उसकी चर्चा नहीं की गई है । अत उक्त ग्रथ की ओर पाठको का ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ । जैन तीर्थों के इतिहास सवधी विशाल साहित्य अपने मे विशेष गुणवान एव शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के प्रति मनुष्य की पूज्यबुद्धि का होना स्वाभाविक एव आवश्यक है। इसी भावना ने भक्तिमार्ग का विकास किया और क्रमश अवतारवाद, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा यादि ग्रमख्य कल्पनाएँ एव विधिविधान प्रकाश में आते गये । तीर्थभावना का प्रचार भी इसी भक्तिवाद की देन है । जिम व्यक्ति के प्रति अपनी पूज्यबुद्धि होती है, उसके माता, पिता, वश, जन्म-स्थान, क्रीडास्थान, विहारस्थल जहाँ कही भी उनके जीवन की कोई विशेष घटनाएँ हुई हो एव उनकी वाणी, उनकी मूर्ति, आदि उस व्यक्ति के मवय की सभी बातो के प्रति श्रादर बढते - वढते पूजा का भाव दृढ होने लगता है और अपने पूज्य व्यक्ति का जहाँ जन्म हुआ हो, निवास रहा हो, उन्होने जहाँ रह कर साधना की हो, जहाँ निर्वाण एव सिद्धि प्राप्त की हो, उन सभी स्थानो को 'तीर्थ' कहा जाने लगता है । प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में हम इसीलिए तीर्थों की यात्रा का महत्त्व पाते है। जैनधर्म में भी तीर्थकरो मे सबंधित स्थानो को तीर्थ कहा गया है और उनकी यात्रा से भावना की शुद्धि एव वृद्धि होने के कारण उनका वडा भारी फल वतलाया गया है, क्योकि उन स्थानो का वातावरण वडा शान्त एव पवित्र होता है । वहाँ जाते ही उन तीर्थकरो की पवित्र स्मृति चित्त में जाग्रत होती है। इसमे चित्त को वडी शान्ति मिलती है । अतएव वहाँ उनके चरणचिह्न या मूर्ति की स्थापना की जाती है, जिससे उनकी स्मृति को जाग्रति में सहायता मिले । पीछे मूर्ति की प्राचीनता, भव्यता, प्रभाव, चमत्कार आदि के कारण कई अन्य स्थान भी, जहाँ तीर्थंकरो के जीवन का कोई मवव नही था, तीयं रूप माने जाने लगे । फलत आज छोटे-मोटे अनेक तीर्थ जैन समाज मे प्रसिद्ध है | समय-समय पर जैन मुनि एव श्रावक वहाँ की यात्रा करते रहे है और उनका वर्णन लिखते रहे है । इसी कारण जैन तीर्थों मवधी ऐतिहासिक सामग्री भी बहुत विशाल रूप में पाई जाती है । यद्यपि जनेतर तीर्थों के माहात्म्य का साहित्य भी बहुत विशाल है, तथापि उसमे ऐतिहासिक दृष्टिकोण का प्रभाव मा ही पाया जाता है । इस दृष्टि से जैन माहित्य विशेष महत्त्व का है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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