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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ३० सचमुच यह नही जान पड़ता कि हम लोगो के जीवन पर किन गन्यो का सबसे अधिक पभाव पडता है। माज जब मै यह विचार करने बैठता हूँ कि मेरे जीवन पर किन त्यो का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है ता मुझे यही ज्ञात होता है कि उनमें एक भी मेरी पाठ्य पुस्तको मे नही है। आज जो सर्वधा अगण्य है, उन्ही 'चन्द्रकान्ता , परीक्षागुरु' और 'देवीसिंह ने मेरी कल्पना-शक्ति को जितना उत्तेजित किया, उतना अन्य किसी उपन्यास ने नहीं किया । पर रचना की ओर मेरी प्रवृत्ति हुई 'हिन्दी-गन्य-रत्नाकर' के ग्रन्यो से । इसमे सन्देह नही कि 'प्रतिभा', चौवे का निट्ठा, वकिम निवन्धावली को मैने पचास वार से अधिक पड़ा होगा। उनके कारण एक विशेष मेली को अपनाकर हिन्दी साहित्य में लिखने की ओर मेरा ध्यान गया। कुछ समय पहले हिन्दी-साहित्य के एक प्रेमी सज्जन ने मुझसे पूछा कि हिन्दी के किन-किन उपन्यासो पर मेरा विशेष अनुराग है। इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए वडा कठिन हो गया है। वात यह है कि अवस्था की वृद्धि के साथ जैसे हम नये लोगो मे परिचय नही वढाना चाहते, वैसे ही नये उपन्यासो से भी हमे अनुराग नहीं होता। जो लोग समीक्षक या पालोचक होते है उनकी वात दूसरी है। पर साधारण पाठको के लिए यह सम्भव नहीं है कि वे नवीन कलाकारो की नवीन कृतियो को पढे । पथिकान पाठको के लिए विशेष लेखक इतने प्रिय हो जाते हैं कि वे अन्य लोगो को कृतियो को पढ ही नहीं सकते। मेरी भी यही स्थिति है। अपनी छात्रावस्था में जिन ग्रन्थोपर मेरा अनुराग हो गया था पौर जिन्हें मैने वार-चार पढा है, उन नन्द्रकान्ना, परीक्षागुरु, और देवीसिंह को छोड करप्राय नभी अनुवाद पन्य है और वे सभी प्राय 'हिन्दी-गन्य-रत्नाकर-कार्यालय द्वारा प्रकाशित हुए है। 'प्रतिभा', 'फूलो का गुच्छा', 'आंख की किरकिरी', 'अन्नपूर्णा का मन्दिर', 'चौवे का चिट्ठा', 'वकिम निवन्धावली' यही सब तो मेरे विशेष प्रिय ग्रन्य वने है। इन्ही के कारण मै यह समझता है कि प्रेमीजी के 'हिन्दी-गन्य-रत्नाकर कार्यालय' से मेरा जीवन कितने ही वर्षों से सम्बद्ध हो गया है। प्रेमीजी के कारण साहित्य की ओर मेरी अनुराग-वृद्धि हुई और उन्ही के कारण मै हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र मे 'प्रायश्चिन' नामक नाटक लेकर प्रविष्ट भी हुआ। यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि किसी भी साहित्य का महत्त्व उसके मौलिक ग्रन्थों पर निर्भर है। पर हिन्दीसाहित्य के ममान अनुन्नत साहित्य में तो अनुवाद की ही विशेष आवश्यकता है। हिन्दी-साहित्य मे अभी तक लब्धप्रतिष्ठ विज्ञो की रचना नहीं है। हिन्दी-साहित्य के सेवको मे अधिकाश अपनी विद्या भोर ज्ञान का अभिमान नही कर सकते । अनुवादो में सबसे बडा लाभ यह होता है कि उससे ज्ञान का प्रमार वडी सरलता से हो जाता है, उच्च आदर्शों का प्रचार सुगमता से होता है और भाषा आप-से-आप परिष्कृत होती है। अनुवाद का यह काम कष्ट-माध्य है। हिन्दी-साहित्य में अभी तक भावो को स्पष्ट रीति से सरलता-पूर्वक व्यक्त करने में कठिनता होती है । 'हिन्दीअन्य-लाकर-कार्यालय' से जो अनुवाद अन्य प्रकाशित हुए, उनके द्वारा भापा की यथेष्ट उन्नति हुई है। कितने ही नवको पर उसका स्थायी प्रभाव पड़ा है। आधुनिक नाटक, उपन्यास, आख्यायिका और निवन्ध तो अपना मूल उन्ही में पा सकते है। मैने भी मनुताद से ही अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया है और मुझे प्रेमीजी और द्विवेदीजी के समान योग्य सम्पादको के कारण अपने काम में विफलता नहीं मिली। ___ कुछ समय तक मै बम्बई मे प्रेमीजी के साथ रह भी चुका है। उस समय मुझे पाठ्य पुस्तके तैयार करनी पड़ी। मैंने तब यह देखा कि प्रेमीजी कितने मनोयोग से अपना काम करते हैं। प्रेमीजी खूव परिश्रम किया करते है। वे खूब ध्यान से लेखो को पढते है और खूब ध्यान से उन्हें छपवाते है । प्रूफ़ देन्वने मे वे और भी विशेष सावधान रहते है । उनको सावधानता के कारण किसी भी प्रकार की भूल नही हो सकती। उन्होने पुस्तको के वाह्य रूप पर भी विशेष ध्यान दिया है। यही कारण है कि उनको पुस्तको का विशेष आदर होता है और मेरे समान कितने ही लेसको की यही लालसा बनी रहती है कि उनकी रचनाएँ 'हिन्दी-गन्थ-रत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित हो ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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