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________________ सैतीस वर्ष २६ सौभाग्य से उसी ग्रन्थमाला में मेरा 'प्रायश्चित' नामक एक नाटक भी प्रकाशित हो गया । तभी मैं प्रेमीजी से विशेष परिचित हुआ । इसी समय जबलपुर मे अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ । वही पर मैने प्रेमीजी को पहली बार देखा । मेरी वडी इच्छा थी कि में 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर - कार्यालय' में काम करूँ । प्रेमीजी को मैने कई वार लिखा और उन्होने सभी समय मुझे बम्बई आने के लिए लिखा, परन्तु वम्बई में गया कितने ही वर्षो के वाद । इस तरह अपनी छात्रावस्था से लेकर अभी तक प्रेमीजी के 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर' से मेरा सम्वन्ध वना हुआ है । मेरे समान साधारण पाठको के हृदय में 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' का क्या स्थान है, यही बतलाने के लिए मै यहाँ अपनी छात्रावस्था का वर्णन कर रहा हूँ । ( ३ ) छात्रावस्था में सभी को अपने भविष्य के लिए अध्ययन करना पडता है । यह अध्ययन काल सभी के लिए एक समान नही है । कोई चार-पांच वर्ष ही पढकर अपना छात्र जीवन समाप्त कर डालते है, कोई आठ-दस सालतक पढते है और कोई पन्द्रह-सोलह वर्षो तक अध्ययन में लगे रहते है। जिसकी जैसी स्थिति होती है उसी के अनुसार उसका छात्र जीवन निर्दिष्ट होता है । कुछ उच्च शिक्षा पा लेते है श्रौर अधिकाश उस शिक्षा सेवचित रहते है । पर एक वार जीवन क्षेत्र में प्रविष्ट होते ही फिर सभी को उसी मे श्राजीवन सलग्न रहना पडता है । एक विद्वान का कथन है कि छात्रावस्था में खूब परिश्रम के साथ हम जो कुछ पढते हैं, उसे भूल जाने के वाद ज्ञान का जो अग अवशिष्ट रह जाता है, उसी से हमारी मानसिक अवस्था की उन्नति होती इसमे सन्देह नही कि छात्रावस्था में हम लोगो को कितनी ही बातें याद करनी पडती है । उन बातो का जीवन मे क्या उपयोग होता है, यह तो हम लोग नहीं जानते । पर इसमें सन्देह नही कि छात्र -काल में उन्ही वातो के लिए अत्यधिक परिश्रम करना पडता है । सन् १६०२ मे लेकर १९१६ तक मुझे अपना छात्रजीवन व्यतीत करना पडा । वह समय मेरे लिए जैसे निर्माणकाल था, वैसे ही भारतवर्ष के लिए भी निर्माणकाल था । इन चौदह वर्षों के भीतर भारतवर्ष मे एक नये ही युग का निर्माण हो गया । क्या समाज, क्या साहित्य और क्या राजनीति, सभी क्षेत्रो मे विलक्षण परिवर्तन हुआ । एक के वाद एक भारत में जो घटनाएं हुई हैं, उनसे देश उन्नति के पथ पर ही अग्रसर हुआ है । वह सुरेन्द्रनाथ, गोखले, तिलक और अरविन्द का समय था । वह रवीन्द्रनाथ का युग था । हिन्दी मे वह बालमुकुन्द गुप्त, श्रीधर पाठक, और महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का काल था । एक ओर जब भारतवर्ष में उन्नति की यह लहर वह रही थी तव में अपने ही छात्रजीवन की समस्याओ को लेकर उलझा हुआ था। देश मे जव वगभग, स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट की खूब चर्चा हो रही थी तव में इलाहावाद के विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रो को लेकर व्यस्त था । मेरे लिए भूगोल, इतिहास, गणित, संस्कृत और अगरेजी ये भिन्न-भिन्न प्रश्न देश के राजनैतिक प्रश्नो से कही अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते थे । मुझे उनके लिए सतत् प्रयत्न करना पडता था । पर समाचार-पत्रो में भिन्न-भिन्न लेख पढने के लोभ को भी मै नही रोक सकता था । शिवशभु शर्मा के पत्र 'भारत मित्र' में प्रकाशित होते थे । उन्हें में खूब ध्यान से पढता था । जव 'हिन्दी-केसरी' का प्रकाशन हुआ तव हम लोगो के प्रान्त में भी एक घूम सी मच गई। 'महात्मा तिलक के ये उपाय टिकाऊ नही है', 'देश की बात' आदि लेखो को मैने भी पढा था । उसी समय सप्रेजी की ग्रन्थमाला में द्विवेदी जी की 'स्वाधीनता' निकली। पर अपने मस्तिष्क को मैने इतिहास, रेखागणित, जामेट्री आदि विषयो से ही भर लिया था । उस समय अपनी परीक्षा के लिए जितनी बातें मुखाग्र याद करनी पडी उनमे से शायद एक भी वात मेरे मस्तिष्क में नही है । छात्रावस्था में जिन पाठो को मैने परिश्रम के साथ स्वायत्त किया था वे भी न जाने कहाँ विलीन हो गये है । यही नही, साहित्य के जिन प्रसिद्ध ग्रन्थो को उस ममय मुझे परिश्रम से पढना पडा था उनसे अव न जाने क्यो विरक्ति-सी हो गई है । अव उन्हें फिर से पढने की इच्छा तक नही होती है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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