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________________ जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री ४६१ उनकी भौगोलिक स्थिति का उल्लेख हैं । श्री जिनप्रभुसूरि का 'विविधतीर्थकल्प' इस विषय का उल्लेखनीय ग्रन्थ है । दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में 'निर्वाणभक्ति' और 'निर्वाणकाण्ड' इस विषय की उल्लेखनीय रचनाएँ है । भारतीय भूगोल के अनुसधान में इन ग्रंथो से विशेष सहायता मिल सकती हैं। साथ ही इनमें वर्णित तीर्थों का माहात्म्य इतिहास के लिए उपयोगी है। श्री प्रेमी जी ने दक्षिण के जैन तीर्थों पर ग्रच्छा प्रकाश डाला है । कम्पिला, हस्तिनापुर आदि तीर्थों पर हमने ऐतिहासिक प्रकाश डाला है । 'पट्टावली' जैन साहित्य भी इतिहास के लिए उपयोगी है, क्योकि जैनसघ भारतवर्ष के प्रत्येक भाग में एक सगठित सस्था रह चुका है । जैनसघ के प्राचार्यों के यशस्वी कार्यों का विवरण भी उनमें गुम्फित होता है, जव कि गुरुशिष्य परम्परा रूपये उनका उल्लेख किया जाता है । भ० महावीर से लेकर आज तक जैनाचार्यों की श्रृंखलावद्ध वश-परम्परा प्रत्येक सघ-गग और गच्छ की पट्टावली में सुरक्षित है । श्वेताम्वरीय समाज में पट्टावली साहित्य के कई सग्रह-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उल्लेखनीय 'पट्टावलि समुच्चय' - 'तपागच्छपट्टावली' खरतरगच्छपट्टावली' - सग्रह आदि है । दिगम्बर जैन समाज में भी इन पट्टावलियो का प्रभाव नही है, परन्तु खेद है कि उन्होने अपनी पट्टावलियो का कोई भी सग्रह प्रकाशित नही किया। वैसे इस सम्प्रदाय की कई पट्टावलियाँ 'इडियन ऍट क्वेरी', ' जैन हितैषी' और 'जनसिद्धान्तभास्कर" नामक पत्रो में प्रकाशित हो चुकी हैं। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और कन्नड, इन सभी भाषाश्रो में पट्टावलियाँ लिखी हुई मिलती है । जैनग्रथों की प्रशस्तियाँ भी इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है । प्रत्येक जैनग्रथ के प्राद्य भगलाचरण एव प्रतिम प्रशस्ति और पुष्पिका में पूर्वाचार्यो एव कवियो के नाम स्मरण एव अन्य परिचय लिखे रहते है । श्री डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दो में "प्रशस्तिसग्रह गुरु-शिष्य परम्परा के इतिहास के उत्तम साधन है । इनमें ग्रंथलेखन की प्रेरणा देने वाले जैनगुरु का उनके शिष्य का और ग्रन्थ का मूल्य देने वाले श्रावक श्रेष्ठी का सुन्दर विवरण पाया जाता है । तत्कालीन शासक और प्रतिलिपिकार के विपय में भी सूचनाएँ मिलती है । इतिहास के साथ भूगोल सामग्री भी पाई जाती है । मध्यकालीन जैनाचार्यों के पारस्परिक विद्यासवध, गच्छ के साथ उनका सबध, कार्यक्षेत्र का विस्तार, ज्ञान प्रसार के लिए उद्योग श्रादि विषयो पर इन प्रशस्ति और पुष्पिकाओ से पर्याप्त सामग्री मिल सकती है | श्रावको की जातियो के निकास और विकास पर भी रोचक प्रकाश पडता है ।"" अभी तक श्वेताम्वर समाज की श्रोर से 'जैनपुस्तक प्रशस्ति सग्रह' प्रथम भाग एव एक अन्य सग्रह भी प्रकाशित हो चुका है । दिगम्बर समाज का एक सग्रह श्री जैन सिद्धान्त भवन, धारा से प्रकाशित हुआ है । किन्तु यह तो अभी कुछ भी नही हो पाया । अभी अनेकानेक जैन प्रशस्तियो को सग्रह करके प्रकाशित करने की आवश्यकता है । जैन प्रशस्ति का महत्त्व आँकने के लिए यहाँ पर उसका एक उदाहरण देना अनुपयुक्त न होगा । भा० दि० जैन परिषद् के कार्यकर्त्ता श्री प० भैयालाल जी शास्त्री को प्रचार प्रसग में भौगांव (जिला मैनपुरी) के वैद्य लालाराम जी से कई प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ मिले थे । उनमें एक 'कल्पसूत्र व्याख्यान' नामक ग्रथ है, जो अव हमारे सग्रह में है । इसकी प्रशस्ति का उपयोगी श्रश हम यहाँ उपस्थित करते है "श्री शासनाधीश्वर वर्द्धमानो । गुणर नं तैरिति वर्द्धमान ॥ यदीयतीर्थं खखखाऽज्वनेत्र २१००० वर्षाणियावद्विजय प्रसिद्ध ॥१॥ इंडियन एंटी० भा० २०, पृ० ३४४-४८ । 'जैनहितैषी, वर्ष ६ । ""जैन सिद्धान्त भास्कर' भा० १, किरण २-३-४ । ४ 'अनेकान्त, भा० ५, पृ० ३६६ व भा० २१, पृ० ५४-८४ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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