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________________ सैंतीस वर्ष श्री पदुमलाल पुन्नालाल वस्ती स्व. द्विवेदी जी मे लेकर जैनेन्द्र तक हिन्दी-साहित्य की जो विकास-गाथा है, उसी में प्रेमीजी के भी साहित्यजीवन की कया है। गत सैतीस वर्षों में देश में स्वाधीनता की जाग्रति के वाद लोगो ने अपनी यथार्थ स्थिति की समीक्षा की और उमी समीक्षा के वाद साम्यवाद को लेकर वर्तमान क्रान्ति-युग आया है। ये तीनो वाते स्वाधीनता, देशदर्शन और माम्यवाद के क्रमय प्रकाशन से प्रकट हो जाती है। कल्पना के क्षेत्र में प्रतिभा', 'नवनिधि', 'वातायन' और 'घृणामयों में हिन्दी के कथा-साहित्य को पूर्ण कथा है। इनके आदर्श में भी समाज की वही भावनाएं स्फुट हुई है। माहित्य के क्षेत्र में एक और मृजन का कार्य होता है और दूसरी ओर प्रचार का । सृजन-कार्य की महत्ता के विषय में किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता, पर प्रचार का काम भी कम महत्त्व का नहीं है। जिन कलाकारो की सृष्टि देश और काल की मीमा को अतिक्रमण कर सदैव चिर नवीन बनी रहती है उनको भी प्रकाश मे लाने के लिए सुयोग्य प्रकागको की आवश्यकता होती है । यदि लेखको के प्रयास स्तुत्य है तो प्रकागको के भी कार्य अभिनन्दनीय है। इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य के क्षेत्र मे एकमात्र लेखक या सम्पादक ही काम नहीं करते। साहित्य के निर्माण, प्रचार, उन्नति और वृद्धि में जो लोग सम्मिलित है उन सभी के कार्य प्रशसनीय है। हिन्दी की वर्तमान स्थिति में तो प्रकाशको के कार्य विशेष गौरवपूर्ण है। सच तो यह है कि यदि लेखक साहित्य का निर्माण करते है तो प्रकाशक ही लेखको का निर्माण करते है । माहित्य का सचालन-भार प्रकाशक पर ही रहता है और इसीलिए प्रकाशक का काम विशेष उत्तरदायित्वपूर्ण है। यह तो स्पष्ट है कि पुस्तक प्रकाशन भी अन्य व्यवसायो की तरह एक व्यवसाय है। व्यवसाय का पहला सिद्धान्त यही होता है कि कम-से-कम के द्वारा अविक-से-अधिक लाभ उठाया जाय । इसी में व्यवसाय की सफलता मानी जाती है। हिन्दी-साहित्य की अभी ऐसी स्थिति है कि उसमें साधारण योग्यता के लेखको को ही अधिक कार्य करना पड़ता है। जो उच्च कोटि के लेखक है, वे अपने पद-गौरव के कारण प्रकाशकोसे भले ही सम्मानित हो, पर उनकी साहित्य-सेवा अभी तक अगण्य ही है। इसी प्रकार एकमात्र अपनी कृति की लोक-प्रियता के ऊपर निर्भर रहने वाले साहित्य-मेवी दो ही चार है। हिन्दी के अधिकाग लेखको में यह क्षमता नही है कि वे स्वय कुछ कर सके। उन्हे प्रकाशको के आश्रय पर ही निर्भर होना पडता है। यही कारण है कि अधिकांश लेखक यह समझते है कि प्रकाशक उन्हें ठग रहे है,अधिक-से-अधिक काम करा कर कम-से-कम पारिश्रमिक दे रहे है । प्रकाशक यह समझते है कि लेखक उन्हें ठग रहे है, कम-से-कम काम कर अधिक-से-अधिक पारिश्रमिक ले रहे है। पाठक यह समझते है कि प्रकाशक और लेखक दोनों ही उन्हें ठग रहे है । रद्दी कितावो के लिए उनसे अधिक-से-अधिक मूल्य ले रहे है। आजकल पत्रो में लेखको के द्वारा प्रकाशन के सम्बन्ध मे जो एक असन्तोष की भावना प्रकट हो रही है, उसका मूल कारण यही है । हिन्दी में पाठको की सख्या परिमित होने के कारण माधारण अन्यो का अधिक प्रचार नहीं होता। पाठ्य-पुस्तको के द्वारा प्रकाशको को जो लाभ होता है वह किसी भी उच्च कोटि की रचना प्रकाशित करने से नहीं होता। इसी कारण अधिकाश को अपने व्यवसाय की सफलता के लिए ऐसी नीति का भी अवलम्बन करना पडता है, जो विशेषगौरवजनक नही । क्षुद्र भावो की ही प्रेरणा से हिन्दी-साहित्य में कभी-कभी जो दल बन जाते है उनसे केवल कटुता और वैमनस्य को ही वृद्धि होती है । ऐमी स्थिति मे हिन्दी की सर्वाङ्गपूर्ण उन्नति के लिए ऐसे प्रकाशको की वडी आवश्यकता
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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