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________________ ४२८ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय अन्य विषयो का अध्ययन करके उनके आधार से कर्म प्रकृति प्राभृत तथा कषाय प्रामृत आदि प्रारम्भिक प्रागम ग्रन्यो के रचने की है। 'आराधना' की अतीव प्राचीनता का एक अन्य प्रवल प्रमाण उक्त ग्रन्थ के चालीसवें विज्जहना नामक अधिकार में वर्णित मुनि का मृत्यु सस्कार है। इसके अनुसार मृत मुनि का शव बन में किसी स्थान पर पशु-पक्षियो के भक्षणार्थ छोड दिया जाता था। ठीक ऐसा ही रिवाज सन् ३२६ ई० पूर्व मे सिकन्दर महान् तथा उमके यूनानी साथियो ने दक्षिणी-पश्चिमी सिन्ध की ओरातीय' जाति में प्रचलित देखा था। यह 'ओरातीय' शब्द 'वात्य' शब्द का यूनानी रूप प्रतीत होता है । उस समय सिन्ध तथा पश्चिमोत्तर प्रदेशो में नाग, मल्ल आदि अनेक व्रात्य जातियो की वस्तियाँ तथा राज्य थे। अनेक जैन मुनि भी यूनानियो को उस प्रान्त मे मिले थे। यह अवैदिक प्रथा उन व्रात्य जातियो में प्रचलित थी और उसी व्रात्य सस्कृति का प्रतिनिधि एक प्राचीन जैनाचार्य उसका विधान करता है। वास्तव में उपर्युक्त प्रथा अवैदिक ही नहीं, प्राग्वैदिक थी। तामिल भाषा के प्राचीन सगम साहित्य में भी उसके उल्लेख मिलते है । डा० पायङ्गर के मतानुसार आर्यों के भारत-प्रवेश के पूर्व से ही वह इस देश में प्रचलित थी।' यह भी हो सकता है कि यूनानी वृत्तो में उल्लिखित 'ओरातीय' (Oreitas) शब्द का जैन अनुश्रुति मे वर्णित इन प्राचीन प्राचार्यों के 'आरातीय विशेषण से ही कोई सम्बन्ध हो। इस प्रकार भगवती आराधना और उसके कर्ता आचार्य शिवार्य की प्रतीव प्राचीनता में कोई सन्देह अवशेष नही रह जाता और ऐसा विश्वस्त अनुमान करने के प्रवल कारण है कि वह शिवार्य ईस्वी के प्रारम्भ के लगभग होने वाले पारातीय यति शिवदत्त ही थे। लखनऊ। 'मेकक्रिन्डल-सिकन्दर का भारत आक्रमण -डिडरो-पृ० २६७ । 'मायगर-तामिल स्टडीज पृ० ३६ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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