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________________ 'भगवती आराधना' के कर्ता शिवाय ४२७ (गाथा १४८) तथा कल्प सूत्र स्थविरावली (गाथा २०) से भी सिद्ध होता है और प्रो० हीरालाल जी ने नागपुर यूनिवर्सिटी जर्नल न०६ में प्रकाशित अपने 'शिवभूति और शिवार्य' शीर्षक लेख में भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य तया श्वेताम्वर ग्रन्यो मे उल्लिखित शिवभूति आचार्य को अभिन्न सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया है। वी शताब्दी के जिनसेनाचार्य ने भगवती आराधना के कर्ता का शिवकोटि नाम से स्मरण किया है। इन सब से यही निष्कर्ष निकलता है कि उक्त आचार्य का मूल नाम 'शिव' था, जिसके साथ भूति, कोटि, कुमार आदि शब्द उल्लेखकर्ताओने स्वरुचि अनुसार अथवा किसी भ्रमवश जोड दिये है और यह कि ये शिवार्य भद्रबाहु द्वितीय के पश्चात् तथा कुन्दकुन्दाचार्य से पूर्व, सन् ईस्वी के प्रारम्भ के लगभग हुए है। ठीक इसी समय एक 'शिवदत्त' नामक पारातीय यति के होने का पता श्रुतावतार आदि ग्रन्थो से चलता है।' श्रुताकधारियो की परम्परा भद्रबाहु (द्वितीय) तथा लोहाचार्य के साथ समाप्त हो जाती है। उसी समय तथा कुन्दकुन्दादि आचार्यों से पूर्व अर्हदत्त, विनयदत्त, श्रीदत्त तथा शिवदत्त-इन चार पारातीय यतियो का होना पाया जाता है। चीयो-पांचवी शताब्दी के पूज्यपादाचार्य ने पारातीयो को सर्वज्ञ तीर्थङ्कर तथा श्रुतकेवलियो के समान ही प्रामाणिक वक्ता माना है और उसी समय के कुछ पीछे लिखी गई आराधना की टोका विजयोदया के कर्ता अपराजित सूरि ने अपने गुरुयो तथा अपने आपको आरातीयसूरि चूडामणि कहा है। इस प्रकार आराधना के कर्ता शिवार्य ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल के लगभग होने वाले आरातीय आचार्य शिवदत्त ही थे, इसमें विशेष सन्देह नहीं रह जाता। शिवार्य ने अपने ग्रन्थ मे अपने गुरुयो-जिननन्दि, सर्वगुप्त, मित्रनन्दि-का जिस प्रकार 'आर्य' पहले तथा 'गणी' शब्द पीछे लगा कर उल्लेख किया है, वह बिलकुल वैसा ही है जैसा कि मथुरा के ककाली टीले से प्राप्त अव से दो हजार वर्ष पूर्व के अनेको जन शिलालेखो में तत्कालीन विभिन्न जनाचार्यों के नामो का हुआ है।' पीछे के जैन साहित्य अथवा अभिलेखो में इन शब्दो का इस प्रकार का आम प्रयोग नहीं मिलता। दूसरे, शिवार्य के अन्य का आधार कथित 'मूलसूत्र' थे। यह मूलसूत्र, भगवान् महावीर से भद्रबाहु (द्वितीय) पर्यन्त चली आई श्रुत परम्परा मे आचाराङ्ग के अन्तर्गत विवक्षित-विषय-सवन्धी मूलसूत्र ही हो सकते है। शिवार्य के सम्मुख उक्त सूत्रो की अवस्थिति भी शिवार्य के उपरि निश्चित समय को ही पुष्टि करती है। शिवार्य के सम्मुख उक्त सूत्रो के आधार से रची हुई कतिपय पूर्वाचार्यों कृत निबद्ध-रचनाएँ भी थी। पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व में ऐसी रचनाओ का होना कुछ असम्भव भी नही है । मथुरा ककाली टीले से ही एक खडितमूर्ति जैन सरस्वती की प्राप्त हुई है, जो लखनऊ के अजायवघर में सुरक्षित है।' यह सरस्वती की सबसे प्राचीन उपलब्ध मूर्ति है । डा. वासुदेवशरण जी अग्रवाल के मतानुसार जनेतरो मे सरस्वती की मूर्ति का निर्माण इसके बहुत पीछे प्रारम्भ हुआ। मूर्ति पर जो अभिलेख है उससे विदित होता है कि यह मूर्ति पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व-क्षत्रप काल की है। इस मूर्ति के एक हाथ में डोरे से बँधी हुई एक ताडपत्रीय पुस्तक है, जो स्पष्ट सूचित करती है कि उस समय जैनो में पुस्तक रचना प्रारम्भ हो चुकी थी। शिवार्य ने अपने गुरुत्रय के चरणो के निकट मूलसूत्रो का अर्थ समझने तथा उसके आधार से अपने ग्रन्थ को रचने की जो बात कही है वह भी बिलकुल वैसी ही है जैसी कि तत्कालीन आचार्य पुष्पदन्त एव भूतबलि के घरसेनाचार्य के निकट तथा प्राचार्य नागहस्ति एव आर्यमा के गुणधराचार्य के निकट, परम्परागत मूल जिनवाणी के अन्तर्गत 'इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार। 'सर्वार्थसिद्धि-१-२० । 'एपिनेफिका इडिका-लुइस द्वारा सम्पादित मथुरा से प्राप्त जैन-शिलालेख । *स्मिथ-जैनस्तुप तथा मथुरा का अन्य पुरातत्त्व, पृ० ५६, प्लेट XCIX
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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