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________________ मेरी भाषा के निर्देशक श्री किशोरीदास बाजपेयी मन् १९२० या '२१ में जलियांवाले वाग के सम्बन्ध में मैने एक आख्यायिका लिखी थी। एक प्रकार का उपन्याम कहिए। उसे प्रकाशनार्य “हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय" (वम्बई) को भेजा। उत्तर मे श्री नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा "आपकी चीज़ अच्छी है, पर हम प्रकाशित न कर सकेंगे। हमारे यहां से स्थायी साहित्य ही प्रकाशित होता है। परन्तु आपकी भापा मुझे बहुत अच्छी लगी। एक शास्त्री की ऐमी टकसाली मरल भापा प्रशसनीय है। यदि आप कुछ जैन-ग्रन्यो के हिन्दी-अनुवाद कर दें तो मै भेज दूं। उन्हे 'जैन-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय' प्रकाशित करेगा। पहले प्रद्युम्न-चरित', 'अनिरुद्ध-चरित' तथा 'पार्श्वनाथ-चरित' का अनुवाद होगा। प्रति पृष्ठ एक रुपये के हिसाव से पारिश्रमिक दिया जायगा। इच्छा हो तो लिखें। आपकी लिखी पुस्तक वापिस भेज रहा हूँ।" इम पत्र से मैंने समझा कि लोग कैसी भापा पसन्द करते है। इससे पहले मुझे इमका ज्ञान न था। जैसी प्रवृत्ति थी, लिखता था। इससे मैने अपनी भाषा का स्वरूप सदा के लिए स्थिर कर लिया। इस प्रकार प्रेमीजी मेरी भाषा के दिशा-निर्देशक है। प्रेमीजी ने तीन ग्रन्थ मेरे पास भेजे। पहले मैंने 'प्रद्युम्न-चरित' और 'अनिरुद्ध-चरित' देखे। वैष्णव-भावना थी और इनके कथानक की कल्पना मुझे पसन्द नही आई, विशेषत रुक्मिणी के पूर्वजन्म की कथा । अत अनुवाद करने की मेरी प्रवृत्ति न हुई। वह मेरी भावुकता ही थी, अन्यथा आर्थिक लाभ और साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ में नामार्जन, कुछ कम प्रलोभन न था। ___ मैने प्रेमीजी को लिख भेजा कि ग्रन्यो में कथानक-कल्पना मेरे लिए रुचिकर नही है। इसलिए अनुवाद में नहीं कर मकूँगा। इसके उत्तर में प्रेमीजी ने लिखा "आपने शायद ठीक नहीं समझा है । जैन-सिद्धान्त मे कर्म का महत्त्व बतलाने के लिए ही महापुरुपो के पूर्वजन्मो का वैसा वर्णन और क्रम-विकास है। आप फिर सोचें। मेरी समझ मे तो आप अनुवाद कर डालें। अच्छा रहेगा।" परन्तु फिर भी मेरी समझ मे न आया और मै अनुवाद करना स्वीकार न कर सका। इम पत्र-व्यवहार से मेरे ऊपर प्रेमीजी की गहरी छाप पडी। मैंने उनके मानसिक महत्त्व को समझा। आगे चलकर मेरी दो पुस्तके भी उन्होने प्रकाशित की, जिनमें से 'रम और अलकार' वम्बई सरकार ने सन् १९३१ मे जन कर ली, क्योकि उममें उदाहरण सव-के-सव राष्ट्रीय थे। पुस्तक तो जब्त हो गई, लेकिन पारिश्रमिक मुझे पूरा मिल गया। इस विषय में प्रेमीजी आदर्श है । मुझे तो पेशगी पारिश्रमिक भी मिलता रहा है । ____वास्तव में प्रेमीजी का जीवन ऐसी भावनाओ से परिपूर्ण है, जिनका चित्रण करना हर किसी के लिए सम्भव नही। मै प्रेमीजी को एक आदर्श साहित्य-सेवी और उच्च विचार का एक ऐसा व्यक्ति मानता हूँ, जिसके प्रति स्वत ही श्रद्धा का उद्रेक होता है। कनखल]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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