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________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका मन सोम सविता चक्षुरस्य घ्राण प्राणो 'मुखमस्याज्यपिव । दिग श्रोत्र नाभिरन्ध्रमन्दयान पादाविला सुरसा सर्वमाप ॥२१॥ अर्थ-- चन्द्र इसका -- परमात्मा का मुख है, सूर्य नेत्र है, प्राणवायु घ्राण- नासिका है, घृतपायी - अग्नि इसका मुख है, दिशाएँ श्रोत्र हैं, श्राकाश नाभि है, पृथ्वी पाँव है और सरस जल सब कुछ है । भावार्थ — ऋग्वेद जैसे प्राचीन ग्रन्थो मे लोकपुरुष का वर्णन करते समय ऋषि ने विवक्षित पुरुष के उन-उन श्रवयवो मे से आधिभौतिक और आधिदैविक विभूतियो की उत्पत्ति का वर्णन करके लोकपुरुष का महत्त्व गाया है ।' जैसे कि मन से चन्द्र उत्पन्न हुआ, चक्षु से सूर्य, मुख से इन्द्र और अग्नि, प्राण से 'वायु, नाभि से अन्तरिक्ष, मस्तक से स्वर्ग और पाँव से पृथ्वी हुई इत्यादि (ऋ० १०६० १३ १४) । शुक्लयजुर्वेद में इसी वर्णन का थोडा विकास हुआ है । आगे जाकर भिन्न-भिन्न उपनिपदो में यह प्रक्रिया अनेक प्रकार से बतलाई गई है । उदाहरण के रूप में बृहदारण्यक मे (१११) मेध्य अश्व के सिर आदि अनेक प्रगो के रूप में उपा आदि प्राकृतिक वस्तुओं की कल्पना की गई है और फिर इमी उपनिषद् में विभिन्न स्थलो पर यही वस्तु भिन्न-भिन्न रूपको मे थोडे बहुत फेरफार के साथ आती है । ऐतरेय मे (१ १४) मुख से वाणी की, वाणी से अग्नि और नामिका की, नामिका से प्राण की, प्राण से वायु और नेत्र की इत्यादि रूप से उत्पत्ति वर्णित है । आगे जाकर भागवत मे (२१२६-३९) तो इतना अधिक विकास हुआ है। कि प्रकृतिगत छोटी वडी सख्यावद्ध वस्तुओ का प्रभुशरीर के अग प्रत्यग के रूप में वर्णन है । इस प्रथा का उपयोग करके कवि यहाँ आधिभौतिक या आधिदैविक वस्तुप्रो का परमात्मा के श्रग प्रत्यग के रूप मे वर्णन करता है और इस प्रकार दृश्यमान समग्र जगत को परमात्मा का शरीर कह करके उसकी सर्वव्यापकता की महिमा गाता है । कवि ने चन्द्र, सूर्य, प्राण, अग्नि, दिशा, आकाश, पृथ्वी और पानी का परमात्मा के उन उन श्रवयवो के रूप मे वर्णन किया है जो बराबर वेद और उपनिपदो की कल्पना का अनुकरण है । कवि सुरस पानी को सब कुछ कहता है यह रूपक कवि का अपना ही हो ऐसा प्रतीत होता है । विष्णुर्वीजमभोजगर्भ शम्भुश्चाय कारण लोकसृष्टी । नैन देवा विद्रते नो मनुष्या देवाश्चन विदुरितरेतराश्च ॥२२॥ ४०५ श्रर्य -- यह परमात्मा विष्णु है और फिर भी लोक के सर्जन में ब्रह्मारूप बीज है । यह शकर है और फिर भी लोकसृष्टि का कारण है । इसको न तो देव जानते है और न मनुष्य जानते है और इसको अन्यान्य देव जानते भी हैं । भावार्थ -- एक ही परमात्मा की ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रूप त्रिमूर्ति प्रसिद्ध है, परन्तु उस त्रिमूर्ति की पौराणिक कल्पना क्रमश रजस्, सत्त्व और तमस् इन गुणो की प्रवानता की प्रभारी है। रजोगुण का अवलम्वन लेकर के सृष्टि की रचना करने वाला ब्रह्मा, सत्त्वगुण का अवलम्वन लेकर के उसका पालन करने वाला विष्णु और तमोगुण का प्रवलम्वन लेकर के उसका सहार करने वाला शकर है । इस प्रकार तीनो मूर्तियो का भिन्न-भिन्न कार्यप्रदेश है । फिर भी कवि यहाँ इस त्रिमूर्ति का अभिन्नरूप मे वर्णन करता है जो पौराणिक कल्पना से विरुद्ध है । कवि परमात्मा का विष्णु और शकर कह करके ब्रह्मा की तरह सृष्टि के कारण के रूप मे वर्णन करता है । इस विरोध 'मुखमस्याद्यपि दिश । श्रोत्रनाभिरन्ध्राभादयान पादाविला -- मु० २ 'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो सूर्या प्रजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत | नाभ्या प्रसीदन्तरिक्ष शीष्ण द्यौ समवर्तत । पद्भ्या भूमिदेश श्रोत्रात्तया लोका अकल्पयन् ॥३१ १२ १३ शु० य० बृहदा० २५ १-१४।३. १।३ २ १३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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