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________________ ४०४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ भावार्थ-मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिषद् आदि में जो चमत्कारी वर्णन है उनमे से कुछ ले करके यहाँ कवि उनको परमात्मा की स्तुति के रूप मे गूथता है । ऋग्वेद में 'चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा। वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य । त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति ।' (४५८३) यह मन्त्र है। उसका सायण ने यास्क निरुक्तभाष्य का अनुसरण करके यज्ञाग्नि और सूर्यपरक व्याख्यान किया है। शाब्दिक पतजलि ने महाभाप्य में इस मन्त्र को शब्दपरक व्याख्या की है जब कि सिद्धसेन यहाँ उसका केवल एक पाद लेकर परमात्मा रुप से उसकी योजना करता है। उसका तात्पर्य यहां परमात्मा के सगुणरूप वर्णन का हो ऐसा प्रतीत होता है। परमात्मा है तो वृषभ अर्थात् उत्तम अथवा कल्याणगुणवर्षण करने वाला-स्वतन्त्र, परन्तु जब वह सत्त्व, रजस और तम इन तीन गुणो से बंधता है अथवा रागद्वेष-मोह के बन्धन में पडता है तब वह नासिका, ग्रीवा और पांव मे विधा बंधे हुए साड की तरह से बूमावूम मचा करके परेशान कर डालता है। "यश्चायमादित्ये तेजोमयोऽमृतमय' (बृह० २२५) इत्यादि रूप से उपनिषदो मे परमात्मा का वर्णन है। वैसे वर्णनो को लक्ष्य में रख करके कवि ने यहाँ परमात्मा का देवतायो के अन्तश्चारी के रूप मे वर्णन किया है। सभी देव परमात्मा मे रहे हुए है इस अर्थ का प्रस्तुत पद्य का द्वितीय पाद तो जैसा का तैसा श्वेताश्वतर में 'अस्मिन्देवा अधिविश्व निषेदु। (४८) है। प्राणियो को प्रेतलोक में ले जाने का काम दण्डवर यम के अधीन है ऐसा पौराणिक वर्णन है । यम प्रेतलोक में जाने वाले प्राणियो का शासन करता है इसलिए वह दण्डधर और भयानक गिना जाता है। वैसे यम के रूप मे भी परमात्मा का निर्देश करके कवि सूचित करता है कि परमात्मा पुण्यशाली के प्रति जितना कोमल है उतना ही पापियो के प्रति कठोर है। अपा गर्भ सविता वह्निरेष हिरण्मयश्चान्तरात्मा देवयान । एतेन स्तभिता सुभगा द्यौर्नभश्च गुर्वी चोर्वी सप्तच भीमयादस ॥२०॥ अर्य-चन्द्र, सूर्य, वह्नि, हिरण्मय, अन्तरात्मा और देवयान यही है। इसी के द्वारा सुन्दर स्वर्ग, आकाश, महती अथवा वजनदार पृथ्वी और सात समुद्र स्थित है। भावार्थ-तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा । तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदापस्तत्प्रजापति ॥" (४२) इस मन्त्र मे श्वेताश्वतर ने ब्रह्म का जैसे अनेक देवो के रूप मे वर्णन किया है वैसे ही कवि ने यहाँ पूर्वार्ध में अनेक देवो के रूप में परमात्मा का वर्णन किया है और उसके वाद जिस प्रकार ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के “येन द्यौरुग्रा पृथ्वी च दृढा येन स्व स्तभित येन नाक । योऽन्तरिक्षे रजसो मिमान कस्मै देवाय हविषा विधेम।" (ऋ० १०-१२१-५, शु० य० ३२-६) इस मन्त्र में हिरण्यगर्भ प्रजापति का सवके आधारस्तम्भ के रूप में वर्णन है और जैसे वृहदारण्यक में "एतस्य वै अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विघृतौ तिष्ठत एतस्य वै अक्षरस्य प्रशासने गागि द्यावापृथिव्यो विघृतौ तिष्ठत" (३८६) इत्यादि द्वारा सूर्य, चन्द्र आदि की नियमित स्थिति के नियामक रूप में अक्षर परमात्मा का वर्णन है और जैसे मुण्डक में "अत समुद्रा गिरयश्च सर्वेऽस्मात्स्यन्दन्ते सिन्धव सर्वरूपा" (२१६) समुद्र, पर्वत, नदी इत्यादि के नियमित कार्य के कारण के रूप में वर्णन है वैसे ही यहाँ उत्तरार्च मे कवि ने स्वर्ग, अाकाश, पृथ्वी और सात समुद्र की स्थिति परमात्मा के कारण है, ऐसा वर्णन किया है। जो शाब्दिक दृष्टि से ऋग्वेद के ऊपर निर्दिष्ट मन्त्र का प्रतिविम्ब मात्र है। पुराणो और लोको मे समुद्र की सात सख्या प्रसिद्ध है इसलिए सप्तद्वीप-समुद्रा वसुमती कहलाती है । यहाँ पूर्वार्ध में तो सव कुछ परमात्मारूप है ऐसा कारण भेद वर्णन है जब कि उत्तरार्ध मे सारा जगत परमात्मा के कारण ही स्थित है ऐसा माहात्म्य वर्णन है। जिस लोक मे जाने के बाद पुनरावृत्ति नही होती है वह देवयान कहलाता है । पितृयान लोक इससे भिन्न है क्योकि वहां से पुनरावृत्ति होती है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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