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________________ मेरा सद्भाग्य २३ वहाँ उनके काम करने का ढंग देखा । एक शब्द में, अथ से इति तक, वह प्रामाणिक है । मालिक से अधिक वह श्रमिक है । पूरा-पूरा लाभ मालिक को आता है । इसलिए अचरज नही कि मालिक भी श्रम पूरा-पूरा करे। लेकिन नही, प्रेमीजी की बात और है। श्रम उनके स्वभाव मे है । मालिको की अक्सर नीति होती है काम लेना । बडे व्यवसायी और उद्योगपति इस करने की जगह काम लेने की नीति से वडे बनते है । वे श्रम करते नही, कराते है और सवके श्रम के फायदे का अधिक भाग अपने लिए रखते है । व्यवस्थापक इस तरह अधिकाश श्रमिक नही होते, चतुर होते हैं । प्रेमीजी की - त्रुटि कहिए कि विशेषता कहिए, वे वडे व्यवसायी नही है और नही हो पाये । कारण, वे स्वय औरो से अधिक श्रम करने के आदी और अभ्यासी है । पुस्तक उनके हाथो आकर सदोष नही रह सकती । भाषा देखेंगे, भाव देखेंग, पक्चुएशन देखेगे और छपते समय भी छपाई और गैटप आदि का पूरा ध्यान रक्खेगे । कही किसी ओर प्रमाद नही रह पायगा । अपनी पुस्तक के सम्वन्ध में इतनी सावधानी और सयत्नता रखने वाला प्रकाशक दूसरा मेरे देखने में नही आया । वस, उनके लिए घर और दुकान | दुकान से शाम को घर और घर से सवेरे दुकान । इस स्वधर्म की मर्यादा से कोई तृष्णा उन्हें बाहर नही ला सकी । यही सद्गृहस्थ का आदर्श है । वेशक वह आदर्श आज की परिस्थिति की माँग में कुछ श्रोछा पडता जा रहा है, लेकिन अपनी जगह उसमें स्थिर मूल्य है और प्रेमीजी उस पर अत्यन्त सय • डिग भाव से कायम रहे है। घर-गिरिस्ती में अपने को वाँटकर रहना, शेष के प्रति सद्भाव रखना और न्यायोपार्जित द्रव्य के उपभोग का ही अपने को अधिकारी मानना, सद्गृहस्थ की यह मर्यादा है । प्रेमीजी का गुण-स्थान वही है और भावना से यद्यपि वे ऊँचे पहुँचते रहे, व्यवहार में ठीक वही रहे । उससे नीचे मेरे अनुमान में कभी नही उतरे । उनका प्रारम्भ जैन जिज्ञासु के रूप से हुआ, लेकिन साम्प्रदायिकता ने उन्हें नही छुन । जैनत्व मे नात्मिक और मानसिक के अलावा ऐहिक लाभ लेने की उन्होने नही सोची । धर्म से ऐहिक लाभ उठाने की भावना से व्यक्ति साम्प्रदायिक बनता है । वह वृत्ति उनमें नही हुई, फलत हर प्रकार का प्रकाश वह स्वीकार करते गये । उनकी जिज्ञासा बन्द नही हुई, इससे विकास मन्द नही हुआ। सहानुभूति फैलती गई और सत्साहित्य की पहचान उनकी सहज और सूक्ष्म होती चली गई। उनकी यही प्रान्तरिक वृत्ति कारण थी कि विना कही पढे अपने व्यवसाय में रहते सहते विविध विषयो का गम्भीर ज्ञान वह प्राप्त कर सके और निस्सन्देह एक से अधिक विषयों के ऊँची-से-ऊँची कोटि के विद्वानों के समकक्ष गिने जाने लगे । वह ज्ञान उनमें सचित न रहा, उन्हें सिद्ध हो गया । उसे उन्हें स्मरण न रखना पडा, वह आप ही समुपस्थित रहा । इसी में उनके स्वभाव की प्रामाणिकता मा मिली तो उनकी सम्मति विद्वानो के लिए लगभग निर्णीत तथ्य का मूल्य रखने लगी । कारण, इनके कथन में पक्ष न होता, न आवेश, न श्रुतिरजन, न प्रत्युक्ति । एक बात का मुझ पर गहरा प्रभाव पडा है । अपने को साधारण से भिन्न समझते मैने उन्हें कभी नही देखा । कभी उन्होने अपने मे कोई विशिष्टता अनुभव नही की । इस सहज निरभिमानता को मैं अत्यन्त दुर्लभ और महान गुण मानता हूँ । मेरे मन तो यही ज्ञानी का लक्षण है । जो अपने को महत्त्व नही देता, वही इस अवस्था में होता है कि शेप सबको महत्त्व दे सके। इस दृष्टि से प्रेमीजी को जब मैने देखा है, विस्मित रह गया हूँ । उनकी इस खुली निरीह साधारणता के समक्ष मैने सदा ही भीतर से अपने को नत मस्तक माना है और ऐसा मानकर एक कृतार्थता भी अनुभव की है । ऐसा अनुभव इस दुनिया में अधिक नही मिलता कि जहाँ सब अपने-अपने को गिनने के आदी और बाकी दूसरो को पार कर जाने के श्राकाक्षी है । उनकी सहज धर्म-भीरुता के उदाहरण यत्रतत्र अनेक मिलेगे । एक सज्जन ने हिसाब में भूल से एक हज़ार की रकम ज्यादा भेज दी । वह जमा हो गई और हिसाब साल पर साल आगे आता गया । तीन-चार साल हो गये । दोनो तरफ खाता वेवाक समझा जाता था । एक असें वाद पाया गया कि कंही से एक हज़ार की रकम बढती है । खोज-पडताल की गई । बहुत देखने पर पता चला कि अमुक के हिसाव मे वह रकम ज्यादा आ गई है । तुरन्त उन
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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