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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ सिद्धसेन का झुकाव सिद्धसेन मुख्यरूप से श्वेताश्वतर का उपजीवन करते हो ऐसा प्रतीत होता है, फिर भी श्वेताश्वतर की अपेक्षा सिद्धसेन की स्तुति में अद्वैत या समन्वय की छाट कुछ अधिक है । यद्यपि वह भी प्रकृति, पुरुष और परम पुरुष इन तीनो को स्वीकार करते हो, ऐसा प्रतीत होता है। दोनो के बीच के इस अन्तर का कारण यह है कि एक तो सिद्धसेन के समय तक श्रनेक प्रकार के श्रद्वैत मत स्थिर हो गये थे और दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि सिद्धसेन ने श्वेताश्वतरीय केवल पाशुपत सम्प्रदाय मे बद्ध नही रह करके उपनिषदो, गीता और पुराणो की समन्वय पद्धति का ही अनुसरण किया हो । ३६० सिद्धमेन के वर्णन की एक खास विशेषता की ओर वाचकवृन्द का ध्यान पहले ही आकर्षित कर देना श्रावश्यक है । वह यह है कि पुरुषतत्त्व की अव्यक्त से भिन्न कल्पना होने के बाद किसी निपुण ससारानुभवी रसिक और तत्त्वज्ञ प्रतिभासम्पन्न कविने पच्चीस तत्त्ववाले साख्य की भूमिका मे अव्यक्त और पुरुष की भिन्न-भिन्न कल्पना होने के वाद मूल कारण व्यक्त को प्रकृति श्रीर कूटस्थ चेतन तत्त्व को पुरुष नाम प्रदान किया और जीवसृष्टि के उत्पादक दो विजातीय ( स्त्री-पुरुष ) तत्त्वों के युगल का रूपक लेकर चराचर जगत् के उत्पादक दो विजातीय तत्त्वो को स्वीकार करके उस युगल का प्रकृति - पुरुष रूप से वर्णन किया, जब कि श्वेताश्वतर ऋषि ने इस प्रकृति-पुरुष स्वरूप दो तत्त्वो का विजातीयत्व कायम रख करके उस युगल का 'अजा' और 'अज' के रूपक से वर्णन किया । इस रूपक में खूबी यह है कि सतति के जन्म और सवर्धन क्रिया मे अनुभवसिद्ध पुरुष के तटस्थपने की छाया, साख्य विचार सरणी के अनुसार चेतन तत्त्व में थी उसको, और मातृसुलभ सपूर्ण जन सवर्धन की जवाबदारी और चिंता की जो छाया प्रकृति मे थी, उसका क्रमण 'अज' और 'अजा' के रूपक में वर्णन किया । जब कि सिद्धसेन ने बत्तीसी मे केवल 'अज' का ही उल्लेख किया है और 'अजा' का उल्लेख छोड दिया है । इतना ही नही, परन्तु उसने ऋग्वेद और शुक्लयजुर्वेद तथा मनुस्मृति आदि की तरह गर्भ के प्रधान स्थान का निर्देश किये बिना ही श्रज - ईश्वर या चेतन का गर्भ के जनक रूप से वर्णन किया है । --- व्याख्यान पद्धति किस पद्धति मे बत्तीसी का अर्थ किया जाय, यह एक समस्या थी। फिलहाल मैने इसका जो निराकरण किया है उमका सूचन यहाँ करना योग्य है, जिससे अभ्यासी अथवा दूसरे व्याख्याकारो को उससे कुछ ग्रागे वढने का ख्याल श्रावे और इसमे रह गई त्रुटियाँ क्रमग दूर हो। मेरी व्याख्यान पद्धति मुख्य रूप से तीन भागो में विभाजित हो जाती है (१) वत्तीसीगत पद, वाक्य, पाद, सारा का सारा पद्य, रूपक, कल्पना आदि वेदो, उपनिषदो और गोता में से जैसे के तैसे या कुछ परिवर्तन के साथ मिलें उनका सग्रह करके अर्थ और विवेचन मे उपयोग करना, (२) उन-उन सग्रहीत भागो के मूल द्वारा या टीकाओ द्वारा जो अर्थ होता हो और जो अधिक योग्य प्रतीत होता हो उसका प्रस्तुत विवेचन में उपयोग करना, (३) वेद आदि प्राचीन ग्रन्थो मे से एकत्रित तुलनात्मक भाग और उसका अर्थ इन दोनो का विवेचन मे ययासभव तुलना रूप से उपयोग करने पर भी जहाँ सगति ठीक नही बैठी वहाँ स्वाधीन बुद्धि से अर्थ और विवेचन करना । प्रस्तुत बत्तीसी अन्य बत्तीसियो के साथ विक्रम स० १९६५ में भावनगर से प्रकाशित हुई है । वही मुद्रित प्रति ग्राज मेरे सामने है । इनमें अनेक स्थलो मे भ्रान्त पाठ है । प्रस्तुत बत्तीसी मे ऐसे अशुद्ध पाठो के स्थान में मुझको जो पाठ कल्पना से ठीक जँचे, उन्ही को उस उस स्थान पर रख कर विवेचन मे गृहीत किया है और जो पाठभेद मुद्रित प्रति है वह उस स्थान मे पाद टिप्पण में मैने दिया है । मैने अपनी दृष्टि के अनुसार जिन-जिन पाठभेदो की कल्पना अन्तिम ही है यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता । परन्तु भाषा, अर्थ, छन्द, और अन्य ग्रन्थो में प्राप्त
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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