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________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका ३८६ प्रथा ही नही थी । इसलिए व्याख्याकारो और भाष्यकारो ने प्रामाणिक रूप से उनको प्राप्त सस्कारो के अनुसार ही उन उन स्थलो की व्याख्या की । अव्यक्त — प्रकृतिपरक वाक्यो का परब्रह्मपरक अर्थ करने में भूल होने का खास कारण यह भी था कि प्रारम्भ में अव्यक्त को अतिम तत्त्व के रूप मे प्रतिष्ठा देने वाले समय मे उसके लिए जिन-जिन अक्षर, स्वयभू, आत्मा, परमात्मा, चेतन, विभु, ब्रह्म आदि विशेषणो का प्रयोग किया जाता था उन्ही विशेषणो का प्रयोग अव्यक्त से भिन्न स्वीकृत चेतन या ईश्वर के लिए भी किया जाता था । इसलिए परब्रह्म की मान्यता के युग में हुए व्याख्याकार श्रव्यक्त की मान्यता वाले युग के वर्णनो का परब्रह्मपरक वर्णन करें यह बिलकुल स्वाभाविक था । परब्रह्म अथवा चेतनतत्त्व के स्वीकार वाली छवोस या पच्चीस तत्त्व मानने वाली भूमिकाएँ प्रथम प्रतिष्ठित हुई होगी, और अव्यक्तको प्रतिम तत्त्व मानने वाली चौबीस तत्त्व की भूमिका उसके बाद भारतीय दर्शनो में आई हो ऐसा नही कह सकते हैं । आगे जाकर जिसका अनात्मवाद या जडवाद के रूप से वर्णन किया गया है वह चौबीस तत्त्व भूमिका पहले की ही है इस विषय में शका के लिए कोई स्थान नही है । महाभारत और गाता में इन भूमिका के अवशेष जहाँ-तहाँ दृष्टिगोचर होते हैं और मूल चरक मे तो इसका स्पष्टरूप से स्वीकार है । फिर भी यह हुआ है कि पिछले व्याख्याकारो ने मूल चरक के इप प्राचीन भाग को अपने सस्कार के अनुमार भिन्न ग्रात्मपरक मान लिया और तदनुसार व्याख्या की है । इपलिए मूल और व्याख्या के बीच में वहत सो असगतियाँ भी दिखाई देती है । पृथक् चेतन और परब्रह्म की मान्यता के युग मे रचं गये और संकलित हुए उपनिषदो, महाभारत नया गोता आदि में इस अव्यक्त प्रकृति को ही अतिम तत्त्व मानने वाली भूमिका का एक मतान्तर के रूप में या पूर्वपक्ष के रूप से उल्लेख हुआ है । आगे जाकर केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत या शुद्धाद्वैत के साम्प्रदायिक विचार प्रकट होने लगे तव उन-उन पुरस्कर्ताश्रो ने जैसे उपनिषदो और गीता आदि का अपनी दृष्टि से ऐकान्तिक व्याख्यान किया, और इन ग्रन्थो में दूसरे कौन कौन से विरोधी मन्तव्य स्पष्ट है इसका विचार तक न किया वैसे ही परब्रह्म या पृथक् चेतनतत्त्व की स्थापना और प्रतिष्ठा होने के बाद के व्याख्याकारो ने प्राचीन अथवा चाहे जिस भाग को एकमात्र परब्रह्म या पृथक् चेतनपरक मान लिया । यह मानता हूँ कि ऋग्वेद और उपनिषदों के कुछ भागो मे बहुत प्राचीन तत्त्वचिंतन समाविष्ट है जिस समय कि इस दृष्टि से उन उन प्राचीन भागो के ऊपर विचार बीच मे यत्र तत्र दृष्टिगोचर होने वाली असगतियां न मै पृथक् चेतन और परब्रह्म की कल्पना उदय में नही आई थी। करने पर विचारको के लिए मूल और पीछे की व्याख्या के रहेगी यह मैं मानता हूँ । प्राचीन उपनिषदो और गीता में अद्वैत - परब्रह्मगामी चिंतन की ओर स्पष्ट झुकाव है । परन्तु प्रारम्भ से लगाकर त पर्यन्त उन उपनिषदो और गीता मे से मध्वाचार्य के ऐकान्तिक द्वैत मत को फलित करना यह जितने श्रश में खीच. त. नी की अपेक्षा रखता है उतने ही अग मे उनमें से प्रयेति शकराचार्य के मायावाद या केवलाद्वैत को फलित करने का काम भी खीचातानी वाला है । यह मुद्दा प्राचीन उपनिषदो और गीता को मूल रूप से पढते समय तुरत दृष्टिगोचर होता है । इसीलिए तत्त्वचितक श्री नर्मदाशकर मेहता उपनिषद्विचारणा मे और सर राधाकृष्णन जैसे भी 'इडियन फिलोसोफी' मे इस बात की माक्षी देते है । प्राचीन उपनिषदो और गीता के बहुत से भाग विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत और शुद्धाद्वैत को ओर जायँ, ऐसे है । परन्तु श्वेताश्वतर स्पष्टरूप से द्वैतवादी है क्योकि उसमें प्रकृति, पुरुष और महेश्वर इस त्रिविध ब्रह्म का स्पष्टरूप से स्वीकार है । और इसी ईश्वर, महेश्वर या परमपुरुष की पशुपति रूप से वर्णना या स्तुति की गई है । 'उदाहरणार्थ गोता २२८ 'अव्यक्तादीनि भूनानि' यह विचार श्रव्यक्तप्रकृति को ही चरम तत्त्व मानने वाली भूमिका का है, न कि पृथक् चेतन मानने वाली भूमिका का । इसी प्रकार छान्दोग्य का 'श्रसदेवेदमग्र आसीत् तत् सदासीत् तत् समभवत्' (३ १६ १ ) इत्यादि भाग प्रकृतिचेतनाभेदवाद की साख्य तत्त्वज्ञान की भूमिका का सूचक है, न कि अतिरिक्त ब्रह्मवाद की मान्यता की भूमिका का सूचक । जब कि 'तर्द्धक प्रहरसदेवेदमग्र आसीत्' (६२.१) इत्यादि छान्दोग्य का भाग अतिरिक्त ब्रह्मवाद की मान्यता की भूमिका का सूचक है । "
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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