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________________ पाणिनि के समय का संस्कृत - साहित्य श्री बलदेव उपाध्याय एम० ए०, साहित्याचार्य महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी मुरयत व्याकरण का सर्वश्रेष्ठ गय है । उसका सवध प्रधानतया संस्कृतभाषा तया उसकी सूक्ष्मभाषा सववी वारोकियो से है । संस्कृत साहित्य का इतिहास इसका विषय न होते हुए भी भाषा की खूबियों को अच्छी तरह से दिखलाने में विद्या के अन्य विभागो का स्थान-स्थान पर उल्लेख करना पडा है । वह इतने महत्व का है कि संस्कृत - माहित्य के अनेक अज्ञात गघरत्नो का इससे परिचय मिल जाता है । पाचीनकाल से लेकर पाणिनि के समय तक के साहित्य पर इसमे थोडा ही प्रकाश डाला गया है। इन गयो के उल्लेख से पाणिनि के विशाल साहित्यिक ज्ञान पर आश्चर्य होता है । प्राचीन 'दृष्ट' श्रुतियो से लेकर ऋषि प्रणीत भिन्न-भिन्न विषयो पर अनेक ग्रथो तक का पता इनसे भलीभाति लग जाता है । पाणिनि के नमय में केवल श्रुतियो का ही अध्ययन नही होता था, वल्कि ब्राह्मणगयो का पठनपाठन भी अच्छे ढग से पचलित था । उन समय संस्कृत साहित्य विशाल होने के अतिरिक्त विभिन्न विषयो के ग्रथो से सुशोभित था । केवल एक ही विषय - धार्मिक साहित्य का ही प्रभ्युदय न था, प्रत्युत अन्य ऐहलौकिक विषयो पर भी रचनाएँ थी। इससे तत्कालीन साहित्य का महत्त्व सहज मे ही नमझा जा सकता है । पाणिनि ने तत्कालीन साहित्य के जो विभाग किये है उसमे उनकी वैज्ञानिक बुद्धि का ययेष्ट परिचय मिलता है । यह विभागोकरण इतना वैज्ञानिक है कि यदि इसका प्रयोग साहित्य के इतिहास गथो मे किया जाय तो उससे अनेक लाभ होने की सभावना है । पाणिनि को प्रखर प्रतिभा ने साहित्य के निम्नलिखित विभागो का निर्देश किया - (१) दृष्ट साहित्य - अर्थात् वे गथ, जिन्हे 'अपौरुषेय' कहा जा सकता है। ये ईश्वर प्रदत्त है, किनी मनुष्य की रचनाएँ नही है । इन ग्रंथो का ज्ञान पहिलेपहिल 'मनदृष्टा' 'ऋषियों' को हुआ था । सूत्रो मे वैदिक नियमो के निर्देश से पाणिनि का वेदसबधी ज्ञान अत्यन्त विस्तृत प्रतीत होता है । यदि उनका वैदिक अध्ययन प्रत्यन्त गभीर न होता तो उन्हें इतने सूक्ष्म नियमो की कल्पना ही नही हो सकती थी । पाणिनि ने दृष्ट माहित्य के उदाहरण में तीनो वेदो का विना नाम के ( ४, ३, १२६) साधारण रूप से उल्लेख किया है तथा अलग-अलग ऋग्वेद (६, ३, ५५, ५, ४, ७७ आदि), सामवेद (५, ४, ७७, ५, २, ५६ ) तया यजुर्वेद (२ ४ ४, ५, ४, ७७, ६ १ ११७ ) का प्रध्वर्यु वेद के नाम से (४ २ ६० ) उल्लेस किया गया है । एकश्रुति के विषय में लिखते हुए पाणिनि ने स्पष्ट ही लिखा है कि साम मे इस नियम का निषेध होता है ( १२३४), जिससे उनके सामगायन-सबधी सूक्ष्म ज्ञान का परिचय मिलता है । ऋग्वेद की शाखा के विषय मे पाणिनि को शाकलशाला (४३ १२८), उसके पदपाठ (६ १ ११५, ७ १ ५७ ) और क्रमपाठ (४ २ ६१ ) का ज्ञान भलोभाति था । उन्हें वेद के कई विभागो, सूक्त अध्याय तथा अनुचाक (५, २६०), का भी यथेष्ट परिचय था । वेदो के 'प्रगाथ' का उल्लेख (४ २ ५५ ) पाया जाता है। जहाँ दो ऋचाएँ प्रथित होकर तीन वन जाती है वहां 'प्रगाथ' होता है ('यत्र द्वे ऋचो पगधनेन तिस्र क्रियन्ते स प्रगाथनात् प्रकर्षगानाद्वा प्रगाय इत्युच्यते' पूर्वसूत्र की काशिकावृत्ति ) । वेदो के कुछ खास भागो का भी स्पष्ट उल्लेख है । 'न्यूख' सोलह प्रोकारो का सम्मिलित नाम है, जिन्हे भिन्न-भिन्न श्रुतियो से उच्चारण करना पडता था ( १, २ ३४ न्यूखा ओकारा षोडश तेषु केचिदुदात्ता केचिदनुदात्ता, काशिका) । 'सुब्रह्मण्या ' नामक कतिपय मत्रो में भी एकश्रुति का निषेध किया गया है (१, २, ३७) ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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