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________________ विक्रमसिंह रचित पारसी-सस्कृत कोष ३७१ का उद्धरण है जो मभवत फारसी का व्याकरण था। यह उद्धरण ऋषभस्तोत्र की टीका में भी मिलता है। ४-कोष के दूसरे पद्य की भाषा शुद्ध माहित्यिक फारसी नहीं है। इस कारण से इसका सन्तोषजनक समन्वय नहीं किया जा सकता। कई शब्द ऐसे है जिनका प्रयोग फारसी में नही मिलता। स्वाभाविक वात है कि री में लिखते समय और सस्कृत-छन्द में इसकी रचना करते समय उसके गब्दो के असली रूप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य हो गया होगा, लेकिन वह इतना नहीं हो सकता कि उनके असली रूप का अनुमान भी न किया जा सके। सभव है कि कोष की भाषा फारसी का कोई रूपान्तर हो। इस बात का निर्णय तो कोष का सूक्ष्म रीति से निरीक्षण करने पर ही हो सकता है कि जिस प्रदेश और काल मे इसकी रचना हुई थी वहां उस समय किस प्रकार की फारसी प्रचलित थी। ५-कोप के रचयिता अथवा उसके लिपिकार ने फारसी उच्चारण की विशेपतानो को देवनागरी मे प्रकट करने का प्रयत्न किया है । फारसी के 'खे' को नागरी 'क' के ऊपर जिह्वामूलीय लिखकर और 'फे' को 'फ' के पूर्व उपध्मानीय लगाकर जाहिर किया है । लेकिन कही-कही 'खे' के लिए 'क', 'ख' या 'प' भी लिखा है। इसी तरह 'फे' के लिए केवल 'फ' लिखा है। 'जे' के लिए 'ज' या 'य' पाया है। कभी 'जीम' के लिए भी 'य' का प्रयोग हुआ है। 'ज्वाद' को 'द' से और 'से' को 'थ' से प्रकट किया है। कभी 'ते' के लिए भी 'थ' आया है।' लाहोर ] H 'तुरा' 'मरा' इति सर्वत्र सबन्धे सप्रदाने च ज्ञातव्यम् । तथा च कुरानकारअज इत्यन्वयादान सवन्धसप्रदानयो । रा सर्वत्र प्रयुज्येतान्यत्र वाच्य सु रूपत ॥ आनि मानि अस्मदीय किंचित् कियच्चदिरीदृशम् । चुनी हमचनी तादृश् चदिन इयदेव च ॥ चीजे किमपि इत्यादि कुरानोक्त लक्षणम् । सर्वत्र विज्ञेय सप्रदायाच्च ॥ जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ६, अक ८, पृ० ३८६ । लेखक के एक सहाध्यापक मराको (अफ्रिका) के रहने वाले है। उनकी अपनी भाषा के 'ते' का उच्चारण . हिन्दी 'थ' से मिलता है । वे अरवी शब्द 'तरतीब को 'थरथीब' कहते है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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