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________________ ३६८ प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ विविध भाषाओ में रचे हुए अनेक स्तोत्र मिलते हैं। जिन प्रभरचित पारसी का ऋषभस्तोत्र प्रसिद्ध है । इसी प्रकार मह० विक्रमसिंह विरचित 'पारसी भाषानुशासन' नाम का फारसी संस्कृत कोप हैं। इसकी एक प्रति अम्बाला शहर के श्वेताम्बर भडार में विद्यमान है । प्रस्तुत लेखक ने इस पर एक नोट प्रकाशित किया था, जिसे पढकर गायकवाड ओरियटल इन्स्टिच्यूट, वडोद्रा के डाइरेक्टर महोदय ने इस प्रति को मगवा कर इसके फोटो वनवा लिये। इससे इस प्रति के महत्त्व का अनुमान लग सकता है। यहाँ उसी प्रति के आधार पर इस कोष का परिचय कराया जाता है । अम्बाले के भडार की सूची में इस प्रति का नवर २५८ (ख) है। इसके आठ पत्र है, जो १० इच लबे और ४१ इच चौडे है । प्रत्येक पृष्ठ पर पद्रह पक्तियाँ है और प्रति पक्ति मे पचास के लगभग अक्षर है। इसके अक्षर साधारण श्वेताम्वर लिपि के है । यद्यपि इममें लिपिकाल का निर्देश नही है, तथापि कागज और अक्षरो की श्राकृति मे तीन मो वर्ष पुरानी प्रतीत होती है । 'जैन गथावली' और मोहनलाल दलीचद देमाई कृत 'जैन साहित्य नो सक्षिप्त इतिहाम' मे इस कोष का उल्लेख नही, परन्तु प्रो० एच० डी० वेलकर ने अपने 'जिनरत्न समुच्चय' में इसी प्रति के आधार पर इन कोष का नाम निर्देश किया है । प्रगस्ति के अनुसार कोष के रचयिता का नाम मह० विक्रमसिंह है, जो मदनपाल का पुत्र और ठक्कुर जागज का पौत्र था । यह जागज प्राग्वाट वग रूपी आकाश मे पूर्ण चन्द्र के समान था तथा धर्मात्मा और बुद्धिमान था । उसका वेटा मदनपाल अपनी सुजनता, नीति और नम्रता आदि गुणो के लिए प्रसिद्ध था । स्वय विक्रमसिंह श्रानन्दमूरि का अनन्य भक्त था । पारसी भाषा का शुद्ध प्रयोग सीखकर उसने इस कोष को रचा। खेद है कि विक्रमसिंह ने कोप का रचना -काल और रचना-स्थान नही वतलाया । इसके अपने तथा पिता और पितामह के नाम का उल्लेख भी कही नही मिला और न श्रानन्दसूरि का नाम ही इस विषय में कुछ सहायता कर सकता है, क्योकि इस नाम के कई आचार्य हो चुके है और विक्रमसिंह ने अपने ग्रानन्दमूरि की गुरु परपरा नही वतलाई । हाँ, 'जैन साहित्य सशोधक, खड ३, पृ० २१ - २६ २ * वल्नर कर्ममोरेशन वॉल्युम्, लाहौर सन् १९४०, पृ० ११६-२२ । * कंटालॉग व मैन्यस्क्रिप्ट्स् इन दि पजाव जैन भडार, लाहौर, सन् १६३६, न० १६४६ ॥ ' इति मह० विक्रमसिंह विरचिते पारसी भाषानुशासने सामान्यप्रकरण पञ्चम समाप्तम् । प्राग्वाट वशगगनाङ्गण पूर्णचन्द्र सर्द्धमबुद्धिरिह ठक्कुरजागजोस्ति । तन्नन्दनो मदनपाल इति प्रसिद्ध सौजन्य नीतिविनयादि गुणैकगेह. ॥१॥ श्रानन्द सूरिपद पद्मयुगक भृङ्गस्तत्सूनुरेष ननु विक्रमसिंह नामा | आम्नाय शुद्धमववृष्य स पारसोक --- भाषानुशासनमिद रचयाचकार ॥२॥ ५ (१) इस नाम के एक आचार्य स० २३० में हुए। पूरणचन्द्र नाहर जैन लेख सग्रह, नं० ८७२, ८७३ ॥ (२) जिनेश्वरसूरि के शिष्य । जैन ग्रन्थावली, पृ० १२६ ॥ (३) नागेन्द्रगच्छीय शान्ति सूरि के शिष्य । पोटर्सन, रि० ३, परिशिष्ट पू० १७ । (४) वृहद्गच्छ के । पीटर्सन, रि० ३, परिशिष्ट पृ० ८० । (५) एक और आचार्य । पीटर्सन, रि० ३, परिशिष्ट पृ० ८७ । (६) अमरप्रभसूरि के गुरु (स० १३४४) पीटर्सन रि० ५, परिशिष्ट पृ० ११० ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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