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________________ विक्रमसिंह रचित पारसी-संस्कृत कोष __ श्री बनारसीदास जैन एम० ए०, पी-एच्० डी० जव भारतवर्ष मे मुसलमानो का राज्य स्थापित हो गया तो यहाँ के मरकारी दफ्तरो मे भारतीय भाषा के साथ-साथ फारसी का प्रयोग भी होने लगा। अत दफ्तरो मे काम करने वाले हिन्दू लोग फारसी से कुछ-कुछ परिचित हो गये होगे, लेकिन मम्राट अकवर के मत्री राजा टोडरमल ने केवल फारसी को ही दफ्तरी भापा बना दिया। अत अव सरकारी नौकरी पाने के लिए फारसी का ज्ञान अनिवार्य हो गया। इस कारण हिन्दुओ मे अव इसका प्रचार अधिक होने लगा। धीरे-धीरे उनकी प्रवृत्ति फारसी साहित्य मे हो गई और उन्होने अपनी विविध रचनामो से इस माहित्य की उल्लेखनीय वृद्धि की।' मुसलमाना को भी यहाँ की प्रचलित भापाएँ सीखनी पडी, क्योकि इनके बिना सीखे जीवन का काम नहीं चल सकता था। इन्होने हिन्दी साहित्य की काफी वृद्धि की। पजावी साहित्य की तो नीव ही इन्होने डाली। प्रारभ मे इन्होने सस्कृत को नही मीसा । मभव है कि पडितो ने इनको सस्कृत सिखाने से मकोच किया हो और इन्होने उसे सीखने से। लेकिन अकवर ने सस्कृत का वडा आदर किया। उमकी प्रेरणा से अबुल फजल, फैजी आदि ने सम्कृत सीखकर उसके अनेक ग्रथो का फारसी में अनुवाद किया।' अकबर के दरवार मे जैन साधुनो का वडा सम्मान था। जैन साहित्य मे इस विषय पर प्रचुर सामग्री मिलती है। सिद्धिचन्द्र तो महल मे जाकर जहांगीर (कुंवर सलीम या शेख वावा) के माथ फारसी सीखा करता था। यद्यपि तत्कालीन देशी भाषामो और साहित्य पर फारसी का पर्याप्त प्रभाव पटा, तथापि कतिपय सज्ञाओ के प्रयोग को छोडकर सस्कृत पर इसका कुछ प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। अभी तक किसी भी फारसी गथ का सस्कृत अनुवाद उपलब्ध नहीं हुआ। हाँ, ज्योतिप के ताजिक ग्रथो का मूल विदेशी जान पडता है, क्योकि उनकी बहुत सी परिभाषाएँ अरबी की है, जो सभवत हिंदुओं ने फारसी द्वारा मीखी हो।' नानाविध-भाषा-ज्ञान जैनाचार्यों का एक प्रधान गुण रहा है। वे संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत, अपभ्रश और एक-दो देशी भाषाएं जाना ही करते थे। अवसर मिलने पर विदेशी भाषा भी सीख लेते थे। जैनाचार्यों द्वारा 'देखिये-सैयद अब्दुल्ला कृत "अद्वियाते फारसी में हिन्दुओ का हिस्सा", वेहली, सन् १९४२ । देखिये-'हिन्दी के मुसलमान कवि"। ''पञ्चास्तिकाय' और 'कर्मकाण्ड' नामक दो जैन ग्रन्यो का भी मुशी दिलाराम कृत फारसी अनुवाद मिलता है। सैयद अब्दुल्ला, पृ० १२५ । "विद्याविजय कृत "सूरीश्वर अने सम्राट्," भावनगर, स० १९७६ । ५भूयो भूयस्त मित्याह प्रसन्नवदन प्रभु । 'त्वया मत्सूनुभि साद्धं स्थेयमत्रव नित्यश' ॥८६॥ अध्यष्ट सर्वशास्त्राणि स्तोकरेव दिनस्तत । शाहिना प्रेरितोऽत्यन्त सत्वर पारसीमपि ॥६॥ पठन्त (पठत ?) पारसी ग्रन्यास्तत्तनूजाङ्गजै समम् । प्रात पूर्वदिनाभ्यस्त पुर श्रावयत प्रभो ॥१०४॥ भानुचन्द्रगणिचरित, चतुर्थ प्रकाश। सिद्धिचन्द्र विरचित, मोहनलाल दलीचद देशाई द्वारा सपादित सिंघी जैन ग्रन्थमाला-१५। 'म्लेच्छेषु विस्तृत लग्न कलिकाल प्रभावत । प्रभुप्रसादमासाद्य जैने धर्मेवतार्यते ॥६॥ हेमप्रभसूरि रचित 'त्रैलोक्यप्रकाश' । 'जैन सत्य प्रकाश' वर्ष ६, अक ६, पृ० ४०६ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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