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________________ ३६० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ सहयोग की भावना भरते हुए उसको जीवन-मचालन के लिए यथायोग्य प्रसि', मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य आदि कार्यों के करने की प्रेरणा की तथा दूसरी ओर लोगो की अनुचित प्रवृत्ति को रोकने के लिए धार्मिक दड विधान चालू किया । श्रर्थात् मनुष्यो को स्वय ही अपनी- क्रोध, मान, माया और लोभ स्प-मानमिक दुर्बलताथो को नष्ट करने तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह स्वरूप प्रवृत्ति को अधिक-से-अधिक कम करने का उपदेश दिया । जैन-मान्यता के अनुसार वर्मोत्पत्ति का श्रादि समय यही है । धर्मोत्पत्ति के बारे में जैन-मान्यता के अनुसार किये गये इस विवेचन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मानव समाज मे व्यवस्था कायम करने के लिए यद्यपि सर्वप्रथम पहिले प्रजातंत्र के रूप में श्रीर वाद में राजतत्र के रूप मे शासनतत्र ही प्रकाश मे श्राया था, परन्तु इसमे श्रधूरेपन का अनुभव करके भगवान ऋषभदेव ने इसके साथ ans को भी जोड़ दिया था। इस तरह शासनतत्र और वर्मतत्र ये दोनो तव से एक दूसरे का बल पाकर फूलतेफलते हुए आज तक जीवित है | यद्यपि भगवान ऋषभदेव ने तत्कालीन मानव-समाज के सम्मुख धर्म के ऐहिक श्रीर प्राध्यात्मिक दो पहलू उपस्थित किये थे और दूसरे (आध्यात्मिक) पहलू को पहिले ही से स्वय अपना कर जनता के सामने महान् आदर्श उपस्थित किया था -- श्राज भी हमे भारतवर्ष मे साघुवर्ग के रूप में धर्म के इस श्राध्यात्मिक पहलू की झाकी देखने को मिलती है परन्तु श्राज मानव-जीवन जव धर्म के ऐहिक पहलू से ही शून्य है तो वहाँ पर उसके श्राध्यात्मिक पहलू का प्रकुरित होना असंभव ही है । यही कारण है कि प्राय सभी धर्मग्रथो में आज के समय में मुक्ति प्राप्ति की असभवता को स्वीकार किया गया है । इसलिए इस लेख में हम धर्म के ऐहिक पहलू पर ही विचार करेंगे । श्राध्यात्मिक पहलू का उद्देश्य जहाँ जन्म-मरण रूप ससार से मुक्ति पाकर श्रविनाशी अनन्तसुख प्राप्त करना है वहाँ उसके ( धर्म के) ऐहिक पहलू का उद्देश्य अपने वर्तमान जीवन को सुखी बनाते हुए श्राध्यात्मिक पहलू की ओर अग्रसर होना है। यह तभी हो सकता है जब कि मानव समाज में सुख श्रीर शान्ति का साम्राज्य 1 कारण कि मनुष्य स्वभाव से ममष्टिगत प्राणी है । इसलिए उसका जीवन मानव समाज के साथ गुथा हुआ है । अर्थात् व्यक्ति तभी मुखी हो मकता है जव कि उसका कुटुम्ब सुखी हो, कुटुम्व भी तव सुखी हो सकेगा जव कि उसके मुहल्ले में अमन-चैन हो। इसी क्रम से आगे भी मुहल्ले का अमन-चैन ग्राम के अमन-चैन पर ग्राम का अमन-चैन प्रान्त अमन-चैन पर और प्रान्त का ग्रमन-चैन देश के श्रमन-चैन पर ही निर्भर है तथा याज तो प्रत्येक देश के ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय सवध स्थापित हो चुके है कि एक देश का अमन-चैन दूसरे देश के अमन-चैन पर निर्भर हो गया है । यही कारण है कि आज दुनिया के विशेषज्ञ विश्व- सघ की स्थापना की बात करने लगे है, लेकिन विश्वसघ तभी स्थापित एव सार्थक हो सकता है जब कि मानव अपनी क्रोध, मान, माया और लोभ रूप मानसिक दुर्बलताओ को नष्ट करना अपना १ (क) असिमंषि. कृषिविद्या वाणिज्य शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्यु' प्रजाजीवनहेतवे ॥ १७९ ॥ तत्र वृत्ति प्रजाना स भगवान् मतिकीशलात् ॥ उपादिशत् सरागो हि स तवासीज्जगद्गुरुः ॥ १८०॥ (आदि पुराण पर्व १६ ) (ख) प्रजापतियं. प्रथम जिजीविषू शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा || 重 'विहाय य सागरवारिवासस वघूमिवेमा वसुधावर्षं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभु प्रवव्राज सहिष्णुरच्युत ॥ ( स्वयंभू स्तोत्र ) (east स्तोत्र )
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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