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________________ जैन-मान्यता में धर्म का प्रादि समय और उसकी मर्यादा ३५६ सामग्री मे उत्तरोत्तर वृद्धि होते-होते उसके पराकाष्ठा पर पहुंच जाने के बाद जब इस अवसर्पिणी काल मे उसका ह्रास होने लगा और वह ह्रास जव इस सीमा तक पहुंच गया कि मनुष्यो को अपने जीवन-सचालन में कमी का अनुभव होने लगा तो मवसे पहिले मनुष्यो मे साधन सामग्री के सग्रह करने का लोभ पैदा हुआ तथा उसका सवरण न कर सकने के कारण धीरे-धीरे माया, मान और क्रोध रूप दुर्वलताएँ भी उनके अन्त करण मे उदित हुई और इनके परिणामस्वस्प हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह इन पांच पापो की ओर यथासभव उनका झुकाव होने लगा। अर्थात् सवसे पहिले जीवन-सचालन की साधन सामग्री के सचय करने में जब किन्ही-किन्ही मनुष्यो की प्रवृत्ति देखने में आई तो उस समय के विशेष विचारक व्यक्तियो ने इसे मानव-ममष्टि के जीवन-सचालन के लिए जवरदस्त खतरा समझा। इसलिए इसके दूर करने के लिए उन्होने जनमत की सम्मतिपूर्वक उन लोगो के विरुद्ध 'हा" नामक दण्ड कायम किया। अर्थात् उस समय जो लोग जीवन-सचालन की साधन-सामग्री के सचय करने में प्रवृत्त होते थे उन्हें इस दड विधान के अनुसार "हमे खेद है कि तुमने मानव-समष्टि के हित के विरुद्ध यह अनुचित कार्य किया है।"-इस प्रकार दडित किया जाने लगा और उस समय का मानव-हृदय बहुत ही सरल होने के कारण उस पर इस दडविधान का यद्यपि बहुत अशो में असर भी हुआ लेकिन धीरे-धीरे ऐसे अपराधी लोगो की संख्या वढती ही गई। साथ ही उनमे कुछ घृष्टता भी आने लगी। तव इस दडविधान को निरुपयोगी समझ कर इसमे कुछ कठोर 'मा" नामक दड विधान तैयार किया गया। अर्थात् खेद प्रकाश करने मात्र से जब लोगो ने जीवन सचालन की माधन सामग्री का सचय करना नही छोडा तो उन्हें इस अनुचित प्रवृत्ति से शक्तिपूर्वक रोका जाने लगा। अन्त में जब इस दड विधान से भी ऐसे अपराधी लोगो की वाढ न घटी तो फिर 'धिक" नाम का बहुत ही कठोर दड विधान लागू कर दिया गया। अर्थात् ऐसे लोगो को उस समय की सामाजिक श्रेणी से वहिष्कृत किया जाने लगा, लेकिन यह दड विधान भी जव असफल होने लगा, साथ ही इसके द्वारा ऊंच और नीच के भेद की कल्पना भी लोगो के हृदय में उदित हो गई तो इस विषम परिस्थिति में राजा नाभि के पुत्र भगवान ऋषभदेव इस पृथ्वीतलपर अवतीर्ण हुए, इन्होने बहुत ही गभीर चिन्तन के बाद एक ओर तो कर्मयुग का प्रारम किया अर्थात् तत्कालीन मानव-समाज मे वर्णव्यवस्था कायम करके परस्पर 'सुरतरु लुद्धा जुगला अण्णोण्ण ते कुणति सवाद ॥ ॥४५॥ (तिलोयपण्णत्ती चौया महाधिकार) २ सिक्ख कुणति ताण पडिसुदिपहुदी कुलकरा पच । सिक्खणकम्मणिमित्त दड कुन्वति हाकार ॥४५२॥ (तिलोयपण्णत्ती चौथा महाधिकार) 'लोभेणाभिहदाण सीमकरपहुदिकुलकरा पच ।। ताण सिक्खण हेदू हा-मा-कार कुणति दंडत्य ॥४७४॥ (तिलोयपण्णती चौथा महाधिकार) * तत्राद्यै पञ्चभिर्नृणा कुलभृद्धि कृतागसाम् ॥ हाकारलक्षणो दण्ड समवस्थापितस्तदा ॥२१४॥ हामाकारो च दण्डोऽन्य पञ्चभि सप्रवर्तित ॥ पञ्चभिस्तु तत शेषा-मा-धिक्-कारलक्षण ॥२१॥ (आदि पुराण पर्व ३) ५ उत्पादितास्त्रयोवर्णास्तदा तेनादिवेधसा। क्षत्रिया वणिज शूद्रा ॥१५३॥ (आदि पुराण पर्व १६)
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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