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________________ प्रेमी-प्रभिनंदन - ग्रथ ( ४ ) सर्वज्ञता का गौरवमय अतीत अभी तक हमने यह बतलाया है कि जैन परम्परा में सर्वज्ञता को किम रुप मे स्वीकार किया गया है और इतर धर्मो या दर्शनो मे उसे कहाँ तक स्थान प्राप्त है। साथ ही, यह भी बतलाया कि मीमासक लोग सर्वज्ञता का क्यो निषेध करते हैं । अव भी यह वात विचारणीय है कि दर्शनयुग के पहले भी क्या नर्वज्ञता का यही स्वरूप माना जाता था अथवा धर्मज्ञता या आत्मज्ञता की क्रमिक परिभाषाओ ने सर्वज्ञता के वर्तमान रूप की सृष्टि की ? गवर ऋषि अपने शावरभाष्य मे 'अयातो धर्म जिज्ञासा' सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखते है कि "धर्म" के विषय में विद्वानो मे वडा विवाद है । किसी ने किसी को धर्म कहा है, किसी ने किसी को । सो विना विचारे धर्म मे प्रवृत्ति करने वाले मनुष्य को लाभ के स्थान मे हानि की ही अधिक संभावना है । प्रत धर्म का ज्ञान कराना आवश्यक है।” यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि मोमानको के मत मे जब पुरुष धर्म जैसे सूक्ष्म तत्त्व को जान ही नही सकना तब वह धर्म का क्या ज्ञान कराएगा ? थोडी देर को हम इस प्रश्न के उत्तर का भार कुमारिल पर ही छोड़ दे तो भी शवर ऋषि के इस कथन से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि शवर ऋषि यह जानते थे कि जैमिनि के समय में धर्म के विषय मे बडा वाद-विवाद हुआ था । जैमिनि को वैदिक धर्म की ही प्रतिष्ठा करनी थी । अत उन्होने 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्म ' कहकर वेद से सूचित होने वाले अर्थ को धर्म वतलाया । यह तो सव कोई जानता है कि जिस प्रकार वैदिक धर्म का मूल आधार वेद माने गये है उस प्रकार अन्य धर्मों का मूल आधार उम धर्म के प्रवर्त्तक पुरुष माने गये है । वेदो को एक या एक से अधिक पुरुषो ने रचा होगा । अत वैदिक धर्म का प्रवर्त्तक पुरुष ही सिद्ध होता है, पर यहाँ इसका विचार मुल्य नही है । इससे निश्चित होता है। कि जिस प्रकार वैदिक धर्म वेदो की प्रमाणता पर अवलम्वित है, उसी प्रकार अन्य धर्म उस धर्म के प्रवर्तक पुरुषो की प्रमाणता पर अवलम्वित है । पर प्रमाणता की कसौटी क्या ? कोई भी पुरुष चौपथ पर खड़ा होकर कह सकता है। कि मैं या यह पोथी प्रमाण है । इनके द्वारा वतलाये गये मार्ग पर चलो, इससे सबका कल्याण होगा । तो क्या जनता इतने कहने मात्र से उनका अनुसरण करने लगेगी ? यदि नही तो हमे फिर देखना चाहिए कि वह प्रमाणता कैसे प्राप्त होती है ? ३५० " गवर ऋपि आगे ‘चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म' सूत्र का व्यास्यान करते हुए लिखते हैं कि "जो अर्थ' वेद से सूचित होता है, उस पर चलने से पुरुष का कल्याण होता है ।" प्रश्न हुआ यह कैसे जाना ? इस पर गवर ऋषि कहते है कि भाई | देखो चूकि 'वेद' भूत, वर्तमान भविष्य, सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती सभी पदार्थों का ज्ञान कराने मे समर्थ है, पर इन्द्रियो से यह काम नही हो सकता ।" अत ज्ञात होता है कि वेद से सूचित होने वाला अर्थ ही पुरुष का कल्याणकारी है । थोडा वर ऋषि के इस कथन पर ध्यान दीजिये । कितने अच्छे ढंग से वे उसी बात को कह रहे है, जिसे सर्वज्ञवादी कहते हैं । सर्वज्ञवादी भी तो यही कहते हैं कि "अमुक धर्म प्राणीमात्र का हितकारी है, क्योकि उसका वक्ता सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञाता, अर्थात् सर्वज्ञ है ।” इतने विवेचन से कम-से-कम हमे इतना पता तो लग जाता है कि गवर ऋषि के समय मे धर्म में कल्याणकारित्व सिद्धि के लिए सर्वार्थप्रतिपादनक्षमता या सर्वज्ञता का माना जाना आवश्यक था । 'धर्म प्रति हि विप्रतिपन्ना बहुविद । केचिदन्य धर्ममाहु केचिदन्यम् । सोऽयमविचार्य प्रवर्त्तमान कञ्चिदेवोपाददानो विहन्येत अनर्थं च ऋच्छेत् तस्माद्धर्मो जिज्ञासितव्य इति ।' शावरभाष्य १ श्र० १ सू० पृ० ३ सोऽर्थ पुरुष नि श्रेयसेन संय्युनक्तीति प्रतिजानीमहे । * चोदना हि भूत भवन्त भविष्यन्त सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्टमित्येवञ्जातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितु नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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