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________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३४६ सुनिश्चित है कि मीमामक भी सर्वजता के सर्वथा विरोधी न थे, क्योकि मीमामको ने आगम के द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का जान स्वीकार किया ही है। शवरऋपि अपने गावर भाप्य में लिखते है कि वेद के द्वारा भूत, भविष्यत, वर्तमान, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान किया जा सकता है। गीताधर्म तो ईश्वर के अवतारवाद को प्रतिष्ठित करने और मजीवन देने के ही लिए लिखा गया है। अत उसके प्रत्येक वाक्य में सर्वज्ञता की झलक है, यह वात गीता के स्वाध्याय प्रेमियो मे छिपी हुई नहीं है। ___इस प्रकार जिन धर्मी या दर्शनो मे ज्ञान को प्रात्मा का स्वभाव नही माना है, उन्होने जव किमी-न-किसी रूप मे मर्वजता को स्वीकार किया है तव जो जैन धर्म प्रारम्भ से ही केवल ज्ञान को आत्मा का स्वभाव मानता पाया है, वह यदि मर्वज्ञता को स्वीकार करता है तो इममे क्या प्राश्चर्य है । पाश्चर्य तो तव होता जब वह आत्मा को ज्ञान स्वभाव मान कर भी सर्वज्ञता को नही स्वीकार करता। वास्तव मे सर्वजता यह जैन सस्कृति की आत्मा है। हमें यहां यह न भूल जाना चाहिए कि जिस प्रकार वैदिक संस्कृति का मूल आधार वेद है, उसी प्रकार जैन या श्रमण सस्कृति का मूल आधार सर्वज्ञता है ।। (३) सर्वजता का विरोध क्यो? जव मीमासक लोग किसी भी पुरुप के वेदो के द्वारा सब पदार्थों का ज्ञान होना मानते है तव यह प्रश्न होता है कि उन्होंने पुरुप की सर्वजता का विरोध क्यो किया? आगे हम इमी विषय पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। जैमिनि ने वेद से सूचित होने वाले अर्थ को धर्म वतलाया है। इसलिए हम पहले वेदो में किस विषय का विवेचन है, यह जान लेना जरूरी है। सामान्यत वेदो के विषय' को विधि, मन्त्र, नामधेय, निषेध और अर्थवाद इन पांच भागो मे विभक्त किया जा सकता है। 'स्वर्ग की कामना वाला पुरुष यन करें' इस प्रकार के वचनो को विधि कहते हैं। अनुष्ठान के प्रयोजक वचनो को मत्र कहते है । अश्वमेघ, गोमेव, आदि नाम नामधेय कहलाते है । अनुचित कामो मे विरत होने को निषेध कहते है। तथा स्तुतिपरक कथन को अर्थवाद कहते है। फिर भी वेद मे विधिवाक्यो की मुस्यता है । इस विषय-विभाग को देखने मे हमे उस वैदिक धर्म की स्मृति हो पाती है, जिससे उत्पीडित प्राणियो के कप्ट निवारणार्थ जैनधर्म को बहुत-कुछ प्रयत्न करना पडा। किन्तु इसमे वैदिको को सन्तोष न हुआ। उनकी सर्वदा यह इच्छा रही कि जैन धर्म (श्रमणधर्म) नाम गेप हो जाय और उसके स्थान मे वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा हो। जनता ज्ञान की उपासक न होकर यज्ञादि अनुप्फानो मेही अमिरुचि रक्खे। प्रारभ से ही श्रमणो ने अहिंसा को धर्म माना है, जब कि वैदिक लोग हिमा और अहिंमा का विभाग न करके वेदविहित कर्मों को धर्म मानते आये है। वास्तव मे यही समस्त झगडे की जड है। मीमासको ने जो यह घोषणा की कि 'धर्म मे वेद ही प्रमाण है, धर्म जैसे अतीन्द्रिय अर्थ को पुरुप नही जान सकता।' इसका मुख्य कारण धर्म में हिंसा का ही प्रवेश है। अव यदि मीमासक लोग पुरुप की स्वत मर्वज्ञता को स्वीकार कर लेते तो उनका यह मारा प्रयत्न धूलि में मिल जाता। यही कारण है कि मीमामको ने पुरुप की स्वत सर्वज्ञता का विरोध किया। इस विरोध का एक पक्ष और भी है। जैसा कि हम पहले लिख आये है कि श्रमण धर्म का मूल आधार सर्वज्ञता है, किन्तु मीमासक लोग श्रमणधर्म का उच्चाटन करना चाहते थे। सर्वज्ञता के जीवित रहते वह सभव न था। इसलिए भी मीमासकोने सर्वज्ञता का विरोध किया। यह कोरी कल्पना नहीं है। मीमासको को छोडकर और किसी ने सर्वजता का विरोध नहीं किया, इमी से यह सिद्ध है। 'चोदनालक्षणोऽर्थों धर्म । भारतीयदर्शन, पृष्ठ ३०३।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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