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________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ वादिदेवरि' ने 'स्यावस्त्येव सर्व' (नव वन्तु कयचित् सत्स्वरूप ही है) एक ही उदाहरण दिया है। मल्लिषेणमूरिने भी वादिदेव काही अनुसरण किया है। प्राचार्यों के उक्त मत दो भागो मे विभाजित किये जा सकते है-प्रथम, जो दोनो वाक्यों के प्रयोगो में कोई अन्तर नहीं मानते है, दूसरे, जो अन्तर मानते है। अन्नर मानने गलो में लचीयन्त्रय के कर्ता अकलकदेव, जयमेन तया अभयदेवसूरि का नाम उल्लेखनीय है। किन्तु इन अन्तर मानने वालो में भी परस्पर मे मतैक्य नहीं है। अकलकदेव प्रमाण वाक्य और नय वाक्य दोनो मे स्यात्कार और एवनार का प्रयोग आवश्यक समझने है। किन्तु जयनेन और अभयदेव स्यात्कार का प्रयोग तो आवश्यक ममझते है, पर एवकार का प्रयोग केवल नयगक्य मे ही मानते है । अकलकदेव के मत से यदि जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म, घट, पट प्रादि वस्तु वाचक शब्दों के साथ स्यात्कार और एवकार का प्रयोग किया जाता है तो वह प्रमाण वाक्य है, और यदि अग्नि, नास्ति, एक, अनेक आदि धर्मगचक गब्दो के माथ उनका प्रयोग किया जाता है तो वह नयवाक्य है। इनके विपरीत जयमेन और अभयदेव के मत से किनी भी गव्द के साथ, वह भन्द धर्मवाचक हो या धमिवाचक हो, यदि एक्कार का प्रयोग किया गया है तो वह नयवाक्य है और यदि एक्कार का प्रयोग नहीं किया गया केवल स्यान् गब्द का प्रयोग किया गया है तो वह प्रमाण वाक्य कहा जाता है। उक्त दो मतो मे दो प्रश्न पैदा होते है१ प्रश्न--क्या धर्मिवाचक शब्द मकलादेशी और धर्मवाचक शव्द विकलादेशी होते है ? २ प्रश्न-क्या प्रत्येक वाक्य के साथ एक्कार का प्रयोग आवश्यक है ? प्रश्नो पर विचार विद्यानन्दि स्वामी ने प्रथम प्रश्न पर प्रकाग डालते हुए लिखा है-'किसी धर्म के अवलम्बन विना धर्मी का व्याख्यान नहीं हो नक्ता। जीव गन्द भी जीवत्वधर्म के द्वारा ही जीववस्तु का प्रतिपादन करता है।' विद्यानन्दि के मत ने समस्त गन्द क्निी न किसी धर्म की अपेक्षा से ही व्यवहृत होते है । आश्चर्य है कि अकलकदेव भी राजवातिक मै इसी मत का नमर्थन करते है। दूसरे प्रश्न पर अनेक आचार्यों ने प्रकाश डाला है। प्राय अधिकाग जैनाचार्य वाक्य के नाथ एवकार का प्रयोग उतना ही आवश्यक समझते है जितना स्यात्कार का। अत यद्यपि भिन्न-भिन्न आचार्यों के मतो पर निर्भर न्ह का न तो उक्त दोनो प्रश्नों का ही ठीक समाधान हो सकता है और न प्रमाणवाक्य और नयवाक्य का निश्चित वत्प ही निर्धारित होता है, फिर भी वस्तु विवेचन के लिए उस पर विचार करना आवश्यक है। यह सत्य है कि प्रत्येक शब्द वस्तु के किसी न किसी धर्म को लेकर ही व्यवहृत होता है। किन्तु कुछ शब्द वस्तु के अर्थ में इतने रुट हो जाते है कि उनमे किसी एक धर्म का वोध न होकर अनेक धर्मात्मक वस्तु का ही बोध होता है। जैन, जीव शब्द जीवनगुण की अपेक्षा से व्यवहृत होता है, किन्तु जीव गब्द के सुनने से श्रोता को केवल जीवनगण का वोष न होकर अनेक धर्मात्मक आत्मा का वोध होता है। इसी तरह पुद्गल, काल, आकाश आदि वन्नुवाचक शब्दो के विपय में भी समझना चाहिए। ससार मे वोलचाल के व्यवहार में आनेवाले पुस्तक, घट, वस्त्र, मकान यादि शब्द भी वस्तु का बोध कराते है। ऐमी दशा मे यदि अकलकदेव के मत के अनुसार धमिवाचक शब्दो को सकतादेगी और वर्मवाचक शब्दो को विकलादेशी कहा जाये तो कोई वाचा दृष्टिगोचर नहीं होती। किन्तु यहां पर भी हमे नर्वधा एकान्तवाद से काम नहीं लेना चाहिए, वर्मीवाचक भब्द सकलादेशी ही होते है और धर्मवाचक शब्द विकलादेगी ही होते है, ऐमा एकान्त मानने से सत्य का अपलाप होगा, कारण, वक्ता धमिवाचक शब्द के द्वारा 'देखो-प्रमाणनय तत्त्वालोक, परिच्छेद ४ सूत्र १५, तया परि० ७ सू० ५३। 'देसो-स्याद्वादमजरो, पृ० १८६। 'देखो-इलोकवातिक पृ० १३७, कारिका ५६। 'देखो-राजवातिक, पृ० १८१, वार्तिक १८।।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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