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________________ स्याद्वाद और सप्तभगी प्रमाणवाक्य और नयवाक्य में मौलिक भेद प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के प्रयोग में ज्ञाता की विवक्षा के अतिरिक्त भी कोई मौलिक भेद है या नहीं? इस प्रश्न के समाधान के लिए जैनाचार्यों के द्वारा दिए गये उदाहरणो पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डालना श्रावश्यक है। दिगम्बराचार्यों में, अकलकदेव राजवातिक' में और विद्यानद श्लोकवार्तिक' में 'प्रमाण सप्तभगी,' और 'नयमप्तभगी' का पृथक् पृथक् व्यास्यान करते है। किन्तु दोनो वाक्यो में एक ही उदाहरण 'स्यादस्त्येवजीव' (किसी अपेक्षा से जीव सत्स्वरूप ही है) देते है। किन्तु लघीयस्त्रय के स्वोपज्ञ भाष्य' मे वे ही अकलक देव दोनो मे जुदे-जुदे उदाहरण देते है । प्रमाण वाक्य का उदाहरण-स्याज्जीव एव (स्यात् जीव ही है) और नय वाक्य का उदाहरण-स्यादस्त्येव जीव (स्यात् जीव सत् स्वरूप ही है) है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र भी दोनो वाक्यो मे एक ही उदाहरण देते है-"स्यादस्ति जीवादि वस्तु" (जीवादि वस्तु कचित् सत्स्वरूप है)। आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय तथा प्रवचनसार में एक-एक गाथा देकर सात भग के नाम मात्र गिना दिये है। दोनो अन्थो में भगो के क्रम में तो अन्तर है ही, इसके अतिरिक्त एक दूसरा भी अन्तर है । पञ्चास्तिकाय मे 'प्रादेसवसेण' लिखा हुआ है जव कि प्रवचनसार मे 'पज्जायण टु फेणवि' पाठ दिया गया है । प्रवचनसार के पाठ से दोनो टीकाकारो ने एवकार (ही) का ग्रहण किया है। प्राचार्य अमृतचन्द्र उदाहरण देते हुए, पञ्चास्तिकाय की टीका मे 'स्यादस्ति द्रव्य' (स्यात्द्रव्य है) लिखते है और प्रवचनसार की टीका मे 'स्यादस्त्येव' (कथचित है ही) लिखते हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने दो ग्रन्थो मे भिन्न-भिन्न दृष्टियो से क्यो व्याख्यान किया, इस प्रश्न का समाधान अमृतचन्द्र ने नही किया। उनके वाद के द्वितीय टीकाकार जयमेन ने इस रहस्य को खोला है। वे लिखते है–स्यादस्ति' यह वाक्य सकल वस्तु का वोध कराता है, अत प्रमाण वाक्य है । और 'स्यावस्त्येव द्रव्य' यह वाक्य वस्तु के एक धर्म का वाचक है, अत नयवाक्य है। वे और भी लिखते है:-'पञ्चास्तिकाय' मे 'स्यादस्ति' आदि प्रमाण वाक्य से प्रमाण सप्तभगी का व्याख्यान किया। यहां 'स्यावस्त्येव' वाक्य में एवकार ग्रहण किया है वह नय सप्तभगी को बतलाने के लिए कहा गया है। सप्तभगीतरगिणी के कर्ता भी दोनो वाक्यो में एक ही उदाहरण देते है-'स्यास्त्येव घट' (घट कथचित् सत्स्वरूप ही है)। यह तो हुआ दिगम्बराचार्यों के मतो का उल्लेख, अव श्वेताम्वराचार्यों के मत भी सुनिए। अभयदेवसूरि लिखते है-'स्यादस्ति' (कथचित् है) यह प्रमाणवाक्य है। 'अस्त्येव' (सत्स्वरूप ही है) यह दुर्नय है। 'अस्ति' (है) यह सुनय है, किन्तु व्यवहार मे प्रयोजक नहीं है । "स्यादस्त्येव" (कथचित् सत्स्वरूप ही है)यह सुनय वाक्य ही व्यवहार में कारण है। 'देखो--राजवातिक, पृ० १८१। देखो-श्लोकवातिक, पृ० १३८ । 'स्याज्जीव एव इत्युक्ते नैकान्तविषय स्याच्छब्द , स्यादस्त्येव जीव इत्युक्ते एकान्तविषय. स्याच्छब्द.' । "देखो-प्रमेयकमलमातंड, पृ० २०६ । ५ "स्यादस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात् प्रमाणवाक्य, स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वानयवाक्यम्"। --पञ्चास्तिकायटीका, पृ० ३२। "पूर्व पञ्चास्तिकाये स्यादस्तीत्यादि प्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभगी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहण तन्नयसप्तभगीज्ञापनार्थमिति भावार्थ'-प्रवचनसारटीका पृ० १६२। "स्यादस्ति" इत्यादि प्रमाण, "अस्त्येव" इत्यादि दुर्नय , "अस्ति" इत्यादिक सुनयो न तु सव्यवहाराङ्गम्, "स्यादस्त्येव" इत्यादिस्सुनय एव व्यवहारकारणम् ।-"सम्मतितर्फ" टी०, पृ० ४४६ ।। ४३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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