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________________ वह यह २६८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ विचारप्रवाह का जो स्पष्ट विकसित और स्थिर म्प हमको प्राचीन या अर्वाचीन उपलब्ध जैनशास्त्रो में दृष्टिगोचर होता है, वह अधिकाश मे भगवान् महावीर के चिन्तन का आभारी है। जैन मत की श्वेताम्बर और दिगम्बर दो मुख्य शाखाएं है। दोनो का साहित्य भिन्न-भिन्न है, परन्तु जैन तत्त्वज्ञान का जो स्वरूप स्थिर हुआ है, वह दोनो गाखाओ मे थोडे-से फेरफार के सिवाय एक समान है। यहाँ एक बात खास तौर से अकित करने योग्य है और कि वैदिक तथा बौद्ध मत के छोटे-बडे अनेक फिरके है। उनमें से कितने ही तो एक दूसरे से बिलकुल विरोधी मन्तव्य भी रखने वाले है। इन सभी 'फिरको' के बीच मे विशेषता यह है कि जब वैदिक और बौद्ध मत के सभी 'फिरके' आचार विषयक मतभेद के अतिरिक्त तत्त्वचिन्तन के विषय मे भी कुछ मतभेद रखते है तब जैनमत के तमाम फिरके केवल आचारभेद के ऊपर अवलम्बित है। उनमे तत्त्वचिन्तन की दृष्टि से कोई मौलिक भेद हो तो वह अभी तक अकित नही है। मानवीय तत्त्वचिन्तन के ममग्न इतिहास में यह एक ही दृष्टान्त ऐसा है कि इतने अधिक लम्बे समय का इतिहास रखने पर भी जिसके तत्त्वचिन्तन का प्रवाह मौलिकरूप से अखडित ही रहा हो। पूर्वीय और पश्चिमीय तत्त्वज्ञान की प्रकृति की तुलना __तत्त्वज्ञान पूर्वीय हो या पश्चिमीय, सभी तत्त्वज्ञान के इतिहास में हम देखते है, कि तत्त्वज्ञान केवल जगत्, जीव और ईश्वर के स्वरूप-चिन्तन मे ही पूर्ण नहीं होता, परन्तु वह अपने प्रदेश मे चारित्र का प्रश्न भी हाथ मे लेता है। अल्प या अधिक अश मे, एक या दूसरी रीति से, प्रत्येक तत्त्वज्ञान अपने में जीवनशोधन की मीमासा का समावेश करता है । अलवत्ता पूर्वीय और पश्चिमीय तत्त्वज्ञान के विकास मे हम थोडी भिन्नता भी देखते है। ग्रीक तत्त्वचिन्तन की शुरुवात केवल विश्व के स्वरूप सम्बन्धी प्रश्नो मे से होती है और आगे जाने पर क्रिश्चियानिटी के साथ मे इसका सम्बन्ध होने पर इसमे जीवनशोधन का भी प्रश्न समाविष्ट होता है। और पीछे इम पश्चिमीय तत्त्वचिन्तन की एक शाखा में जीवनशोधन की मीमामा महत्त्वपूर्ण भाग लेती है । अर्वाचीन समय तक भी रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय में हम तत्त्वचिन्तन को जीवनशोधन के विचार के साथ सकलित देखते है । परन्तु आर्य तत्त्वज्ञान के इतिहास में हम एक खास विशेषता देखते है । वह यह कि मानो आर्य तत्त्वज्ञान का प्रारम्भ ही जीवनशोधन के पश्न में से हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। क्योकि आर्य तत्त्वज्ञान की वैदिक, वौद्ध और जैन इन तीन मुख्य शाखाओ मे एक समान रीति से विश्वचिन्तन के साथ ही जीवनशोधन का चिन्तन सकलित है। आर्यावर्त का कोई भी दर्शन ऐसा नहीं है, जो केवल विश्वचिन्तन करके सन्तोष धारण करता हो। परन्तु उससे विपरीत हम यह देखते है कि प्रत्येक मुख्य या उसका शाखारूप दर्शन जगत्, जीव और ईश्वर सम्बन्धी अपने विशिष्ट विचार दिखला कर अन्त में जीवनशोधन के प्रश्न को ही लेता है और जीवनशोधन की प्रक्रिया दिखला कर विश्रान्ति लेता है। इसलिए हम प्रत्येक आर्यदर्शन के मूल ग्रन्थ में प्रारम्भ मे मोक्ष का उद्देश और अन्त मे उसका ही उपसहार देखते है। इसी कारण मे साख्यदर्शन जिस प्रकार अपना विशिष्ट योग रखता है और वह योगदर्शन से अभिन्न है, उसी प्रकार न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शन में भी योग के मूल सिद्धान्त है । बौद्धदर्शन में भी उसकी विशिष्ट योगप्रक्रिया ने खास स्थान ले रक्खा है। इसी प्रकार जैनदर्शन भी योगप्रक्रिया के विषय मे पूरे विचार रखता है। जीवनशोधन के मौलिक प्रश्नो की एकता इस प्रकार हमने देखा कि जैनदर्शन के मुख्य दो भाग है, एक तत्त्वचिन्तन का और दूसरा जीवनशोधन का। यहां एक वात खास तौर मे अकित करने योग्य है और वह यह कि वैदिकदर्शन की कोई भी परम्परा लो या बौद्धदर्शन की कोई परम्परा लो और उसकी जैनदर्शन की परम्परा के साथ तुलना करो नो एक वस्तु स्पष्ट प्रतीत होगी कि इन सब परम्परामो मे जो भेद है वह दो वातो मे है । एक तो जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूपचिन्तन के सम्बन्ध में और दूमरा प्राचार के स्थूल तथा वाह्य विधि-विधान और स्थूल रहन-सहन के सम्बन्ध में। परन्तु आर्यदर्शन की प्रत्येक
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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