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________________ जैन तत्त्वज्ञान २६७ है। जिस प्रकार वह आत्मतत्त्व अनादि है, उसी प्रकार देश और काल दोनो दृष्टियो से अनन्त भी है और वह आत्मतत्त्व देहभेद से भिन्न-भिन्न है, वास्तविक रीति से एक नही है। तीसरा विचारप्रवाह ऐसा भी था कि जो बाह्य विश्व और आन्तरिक जीवजगत् दोनो को किसी एक अखड सत् तत्त्व का परिणाम मानता और मूल मे वाह्य या आन्तरिक जगत की प्रकृति अथवा कारण में किसी भी प्रकार का भेद नही मानता था। जैन विचारप्रवाह का स्वरूप ऊपर के तीनो विचारप्रवाहो को क्रमय हम यहाँ प्रकृतिवादी, परमाणुवादी और ब्रह्मवादी के नाम से पहचानेगे। इनमें से पहले के दो विचारप्रवाहो से विशेष मिलता-जुलता और फिर भी उनसे भिन्न ऐसा एक चौथा विचारप्रवाह भी साथ-साथ मे प्रवृत्त था। यह विचारप्रवाह था तो परमाणुवादी, परन्तु वह दूसरे विचार-प्रवाह की तरह वाह्य विश्व के कारणभूत परमाणुगो को मूल मे ही भिन्न-भिन्न प्रकार के मानने की तरफदारी नहीं करता था, परन्तु मूल में सभी परमाणु एक समान प्रकृति के है, यह मानता था और परमाणुवाद स्वीकार करने पर भी उसमें मे केवल विश्व उत्पन्न होता है यह नही मानता था। वह प्रकृतिवादी की तरह परिणाम और आविर्भाव मानता था। इसलिए वह यह कहता था कि परमाणु पुज मे मे वाह्य विश्व अपने आप परिणमता है। इस प्रकार इस चौथे विचार-प्रवाह का झुकाव परमाणुवाद की भूमिका के ऊपर प्रकृतिवाद के परिणाम की मान्यता की ओर था। उमकी एक विशेषता यह भी थी कि वह समग्र वाह्य विश्व को आविर्भाव वाला न मान करके उसमें के कितने हो कार्यों को उत्पत्तिशील भी मानता था। वह यह कहता था कि बाह्य विश्व में कितनी ही वस्तुएं ऐसी है, जो किसी पुरुष के प्रयत्ल के सिवाय अपने परमाणुरूप कारणो मे से उत्पन्न होती है। वैसी वस्तुएँ तिल में से तैल की तरह अपने कारण में में केवल आविर्भूत होती है, परन्तु विलकुल नवीन उत्पन्न नही होती है । जव कि वाह्य विश्व में वहुतसी वस्तएं एमी भी है कि जो अपने जड कारणो मे से उत्पन्न होती है, परन्त अपनी उत्पत्ति में किसी परुष के प्रयल की अपेक्षा रखती है। जो वस्तुएं पुरुप के प्रयत्ल की सहायता से जन्म लेती है, वे वस्तुएं अपने जड कारणो में तिल मे तैल की तरह छिपी हुई नहीं रहती है, परन्तु वे तो विलकुल नवीन ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार कोई सुतार विभिन्न काष्ठखडो को एकत्रित करके उनसे एक घोडे का निर्माण करता है, तव वह घोडा काष्ठखटो में छिपा नही रहना है, जैसे कि तिल मे तैल होता है। परन्तु घोडा बनाने वाले सुतार की बुद्धि में वह कल्पनाम्प से होता है और वह काप्ठ-वडी के द्वारा मूर्तम्प धारण करता है। यदि मुतार चाहता तो इन्ही काष्ठ-खडो से घोडा न बना कर गाय, गाडी अथवा दूसरी वैमी वस्तु बना सकता था। निल मे मे तेल निकालने की बात इससे विलकुल भिन्न है। कोई तेली चाहे जितना विचार करे या इच्छा करे फिर भी वह तिल मे से घी या मक्खन तो नहीं निकाल सकता है। इस प्रकार चतुर्थ विचार प्रवाह परमाणुवादी होने पर भी एक ओर परिणाम और आविर्भाव मानने के विषय में प्रकृतिवादी चिार-प्रवाह के साथ मिलता था और दूसरी ओर कार्य तथा उत्पत्ति के विषय मे परमाणुवादी दूसरे विचार-प्रवाह से मिलता था। यह तो वाह्य विश्व के सम्बन्ध में चतुर्थ विचार-प्रवाह की मान्यता हुई, परन्तु आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में तो इसकी मान्यता ऊपर के तीनो विचारप्रवाही की अपेक्षा भिन्न थी। वह मानता था कि देहभेद से प्रात्मा भिन्न है। परन्तु ये सव आत्माएं देशदृष्टि में व्यापक नही है तथा केवल कूटस्थ भी नहीं है । वह यह मानता था कि जिस प्रकार वाह्य विश्व परिवर्तनशील है उसी प्रकार आत्माएं भी परिणामी होने से सतत परिवर्तनशील है और आत्मतत्त्व मकोच-विस्ताग्शील है, इसलिए वह देहप्रमाण है। यह चतुर्थ विचारप्रवाह ही जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीन मूल है। भगवान् महावीर मे बहुत समय पहले से यह विचारप्रवाह चला पाता था और वह अपने ढग से विकसित होता तथा स्थिर होता जाता था। आज इस चतुर्थ ३८
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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