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________________ २७० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ के सम्बन्ध मे एक ऐसे महत्त्वपूर्ण मत का वर्णन करता है, जो रूसो या यूगेल्स (Eugels) के लिए वडा गौरवयुक्त सिद्ध होता। वसुवन्यु ने आगे लिखा कि पार्थिव शरीर वाले वे प्राचीन जीव धीरे-धीरे पार्थिव गुणो से अधिक प्रभावित होने लगे, स्त्री-पुरुष के लिंग-भेद का भी सृजन होने लगा, जिससे काम-सम्बन्धी नियमो की उत्पत्ति हुई। जीवो में सग्रह की भावना तया भविष्य के लिए आवश्यक वस्तुओ को वटोर रखने का विचार भी घर करने लगा। पहले तो ऐसा होता था कि प्रात कालीन भोजन के लिए पर्याप्त अन्न सवेरे तथा सायकालीन के लिए उतना ही शाम को एकत्र किया जाता था, परन्तु सृष्टि के एक आलमी व्यक्ति ने भविष्य के लिए भी अन्न जुटाना प्रारम्भ कर दिया और उसका अनुकरण कैमरे भी करने लगे। इकट्ठे करने की इस भावना ने 'अपनेपन' अर्थात् स्वत्व के विचार को उत्पन्न कर दिया। "स्वत्व या अधिकार की भावना से राष्ट्र की उत्पत्ति अवश्यम्भावी हो गई, क्योकि लोगो ने सारे क्षेत्रो को अपने वीच में वांट लिया और हर एक व्यक्ति एक-एक क्षेत्र का स्वामी बन बैठा | परन्तु इसके साथ-साथ लोगो ने दूसरे की भी सम्पत्ति को बलपूर्वक हथियाना शुरू कर दिया। इस प्रकार चोरी का प्रारम्भ हुआ। इस चोरी को रोकने के लिए लोगो ने मिलकर यह त किया कि वे किसी मनुष्यविशेष को अपनी-अपनी आय का छठवां भाग इसलिए देंगे कि वह उनके क्षेत्रो की रक्षा करे। उन्होने इस पुरुषविशेष का नाम क्षेत्रप (क्षेत्रो की रक्षा करने वाला) रक्खा। क्षेत्रप होने के कारण उसे क्षत्रिय की उपाधि प्रदान की गई। एक वडे जनसमूह (महाजन) के द्वारा वह बहुत सम्मानित (सम्मत) होने लगा और लोगो का रजन करने के कारण उसकी सज्ञा राज महासम्मत हो गई। यही राजवशो की उत्पत्ति का मूलरूप था।" __ इस प्रकार वसुवन्यु के मस्तिष्क में एक विशाल कल्पना का उदय हुआ। किन्तु यह वात नही है कि केवल वसुवन्धु ने ही या सवसे पहले उसी ने राष्ट्र की उत्पत्ति के विषय में कल्पना की हो। इस सम्बन्ध मे शायद सबसे पहले 'महाभारत' (१२, ६७, १७-) मे कुछ विचार पाये जाते है, जिसमें कहा गया है कि प्रारम्भ मे जब कोई शासक नही था तव लोगो की दशा बहुत दयनीय थी, क्योकि आदिम अव्यवस्था के उस युग में प्रत्येक मनुष्य अपने समीप में रहने वाले कमजोर व्यक्ति को उसी प्रकार नष्ट करने की ताक में रहता था, जिस प्रकार पानी मे सबल और कमजोर मछलियो की दशा होती है (परस्पर भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान् ॥१७॥)। यह वात ध्यान देने की है कि 'महाभारत' मे उल्लिखित यह मत्स्यन्याय की दशा किसी आगे आने वाली स्थिति की ओर सकेत नहीं करती, जैसा कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है, किन्तु यह उस प्राचीन समाज को सूचित करती है, जिसमें मनुष्य-जाति को वास्तव मे कष्ट था। इसके पहले वाले श्लोक में इस प्रकार का कथन मिलता है कि “यदि पृथिवी पर दड देने वाला राजा न हो तो वलवान् लोग दुर्वलो को उसी प्रकार नष्ट कर दें जिस प्रकार जल में सबल मछलियाँ कमजोरो का भक्षण कर डालती है" (जले मत्स्यानिवाभक्षयन् दुर्वल बलवत्तरा)। यदि इस अन्तिम श्लोक का पाठ शुद्ध है और 'अभक्षयन्' शब्द को 'भक्ष' धातु के 'लुड्' लकारका रूप माना जाय तो हमको मत्स्यन्याय के सम्बन्ध में वही स्थिति माननी पडेगी, जो कौटिल्य ने दी है, अर्थात् वह राजनीतिज्ञ शास्त्रकारो की केवल एक ऐसी धारणा सिद्ध होगी कि मत्स्यन्याय की भयावह किन्तु हटाई जाने योग्य दशा भविष्य में किसी भी अनियन्त्रित राष्ट्र की हो सकती है, न कि ऐसी दशा किसी राष्ट्र के विकास में अनिवार्यत पहले रही थी। अव यह प्रश्न उठता है कि आदिम मनुष्यो ने ऐसी प्रशान्त स्थिति से कैसे छुटकारा पाया? इसका उत्तर यह दिया गया है कि समाज को नियमित करने के लिए वे सब आपस में इकट्ठे हुए और उन्होने सब को कुछ नियम पालन करने के लिए वाध्य किया (समेत्यतास्तत चक्रु समयान्) और यह स्थिर किया कि "जो कोई किसी दूसरे को वाचिक या कायिक कष्ट देगा, दूसरे की स्त्री को छीनेगा या दूसरे के स्वत्व का अपहरण करेगा, उसे हम लोग दड देंगे" (वाफ्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात् पारजायिक , य परस्वमथाऽदद्यात् त्याज्या नस्तादृशा इति, श्लो० १८-१९); किन्तु शीघ्र ही इस बात का अनुभव किया गया कि केवल नियम बनाने से ही समाज व्यवस्थित नहीं हो जाता। उन
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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