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________________ हिंदू राजनीति में राष्ट्र की उत्पत्ति श्री कृष्ण घोष एम० ए०, पी-एच० डी०, डी० लिट् यह श्राश्चर्य की बात है कि हमारा प्राचीन साहित्य, जिसमें राष्ट्र की व्यवस्था के सम्वन्ध में अनेक लम्बेचोडे वर्णन मिलते है, इस वातपर प्राय मीन है कि व्यवस्थित समाज की उत्पत्ति किस प्रकार हुई। कौटिल्य ने भी, जिससे इस सम्बन्ध में बहुत कुछ श्राशा थी, इसके बाबत कुछ नही लिखा । यद्यपि कौटिल्य के समय में, जैसा हम अभी देखेंगे, राष्ट्र की उत्पत्ति के विषय मे कुछ मत प्रचलित थे तथापि उसने अपने ग्रंथ में किसी का उल्लेख नहीं किया, क्योकि वह उन बातो पर माथापच्ची करना ठीक नहीं समझता था, जो केवल अनुमान पर प्राश्रित हो । कोटिल्य ने मत्स्यन्याय तक का कथन ( श्रयं ० १, ४) इम दृष्टि से नहीं किया कि वह उस प्राचीन समाज की दशा सूचित करता है, जब सृष्टि प्रारम्भ के कुछ समय बाद वैसी परिस्थिति उत्पन्न ही गई थी। उसने मत्म्य-न्याय से यह भाव ग्रहण किया हैं कि किमी भी राष्ट्र की ऐमी भयावह और अरक्षित दगा हो सकती है, यदि उसकी शासन विधि कठोर व्यवस्था मे नियमित न की जाय । कौटिल्य, रूसो (Rousseau ) के विपरीत, एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ था । श्रत उसने केवल कल्पना पर आश्रित मतो को महत्त्व नही दिया । भारत के श्रगणित आदर्शवादी तत्त्ववेत्ताओ मे केवल एक व्यक्ति ऐमा मिला है, जिसने प्रप्रासंगिक रूप में राष्ट्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ बाते दी है, जिन्हें यदि रूसो जान पाता तो वह श्रानन्द-विभोर हो उठता । वह व्यक्ति वसुबन्धु है, जिसका समय ईसा की पांचवी शताब्दी है । सृष्टि सम्बन्धी एक पाडित्यपूर्ण व्याख्या के बीच में वसुबन्धु' एकाएक यह प्रश्न उपस्थित करता है - "क्या सृष्टि प्रारम्भ के समय मनुष्यों का कोई राजा था ?" इसका उत्तर वह नकार में देता है, क्योकि "सृष्टि के प्रारम्भकाल में सभी जीव देव-रूप थे। फिर धीरे-धीरे लोभ और श्रालस्य के वढने से लोगो ने आराम की वस्तुएँ इकट्ठी करना सीख लिया और सम्मिलित वस्तुम्रो के भागहारियो ने अपनी क्षेत्र सम्पत्ति की रक्षा के लिए एक रक्षक रखना शुरू कर दिया ।" पौसिन ने जो नीचे का अस्पष्ट श्लोक उद्धृत किया है, उसका उपर्युक्त अर्थ ही सगत जान पडता हैप्रागासन् रूपिवत् सत्वा रसरागात् तत शनैः । श्रालस्यात्सग्रह कृत्वा भागादै क्षेत्रपोभूत. ॥ अपने प्राचीन देवतुल्य शान्ति के मार्ग से हटने पर जीवो की अधोगति होने लगी। "तव गर्ने - शनै पृथिवी - रस की उत्पत्ति हुई, जो मघुस्वादुरम के समान कहा गया है। किसी जीव ने अपने स्वभाव-लोलुप्य के कारण इस रस को मूघा और फिर चखकर उमे खा लिया। इसके वाद अन्य जीवो ने भी ऐसा ही किया । मुख द्वारा उदर-पोषण का यह प्रारम्भिक रूप था। इस प्रकार के पोषण द्वारा कुछ काल वाद जीव-गण पार्थिव तथा शरीर से स्थूल हो गये और उनका प्रकाश-रूप नष्ट होने लगा । श्रन्त में तमस् का प्रसार हो गया, परन्तु कालान्तर में सूर्य और चन्द्र की उत्पत्ति हुई । " एक भारतीय मिल्टन के मस्तिष्क पर हमारी पृथिवी पर जीवोत्पत्ति की इम उत्कृष्ट श्रौर मनोरंजक कहानी को सुनकर कैमा प्रभाव पडता, यह विचारणीय है । किन्तु वसुवन्वु भी, जो एक शुष्क तत्त्वज्ञानी था, ठोस कल्पना के वरदान से विलकुल वचित न था । श्रादि देव-रूप जीवो के प्रकाशमान् सुपार्थिव शरीरो का पापस्पर्श के कारण रुविर और मास के शरीरी के रूप में परिणत होने का तात्त्विक विवेचन करने के बाद वसुवन्धु मानव समाज की उत्पत्ति ' देखिए 'ला अभिधर्मकोष व वसुबन्धु', १९२६, पृ० २०३ तथा उसके श्रागे ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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