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________________ जैन ग्रंथो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २६७ गुजरात में भरोच, वडनगर, भात, आदि स्थानो मे पहुँच कर काठियावाड मे भावनगर, जूनागढ श्रादि स्थानो में होता हुग्रा कच्छ तक चला गया । वरार मे एलिचपुर, महाराष्ट्र, कोकण तथा दक्षिण में हैद्राबाद, मद्रास में वेजवाडा, गुन्टूर, काजीवरम आदि प्रदेशो मे होकर कुर्ग और मलावार तट तक पहुँच गया । इस तरह जैनधर्म का प्रसार लगभग समस्त हिन्दुस्तान में हुआ । परन्तु जहाँ तक मालूम हुआ है, जैनधर्म ने वौद्धधर्म की नाई हिन्दुस्तान से बाहर कदम नही रक्खा । इसका मुख्य कारण था खान-पान के नियमो की कडाई | महावीर का धर्म त्यागप्रधान होने से जैनश्रमणो के आचार-विचार में काफी कठोरता रही और इसका परिणाम यह हुआ कि उनमे बहुत काल तक वौद्ध साधुओ की तरह शिथिलता नही श्रा पाई, जिसके फलस्वरूप जैनधर्म हिन्दुस्तान मे टिका रहा। राजा सम्प्रति के पश्चात् जैनधर्मानुयायी इतना प्रभावशाली कोई राजा नही हुआ और इसलिए जिस प्रचंड वेग के साथ जैनधर्म का प्रसार होना आरम्भ हुआ था, वह वेग अधिक काल तक कायम न रह सका। वारहवी शताब्दी में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र श्राचार्य के युग मे गुजरात के राजा कुमारपाल के समय में एक बार फिर से जैनधर्म चमका, परन्तु फिर वह सदा के लिए सो गया। आजकल जैनधर्म अपने उद्भवस्थान विहार और वगाल से लुप्तप्राय हो चुका है। उसके अनुयायी विशेषकर गुजरात, काठियावाड, कच्छ, राजपूताना, सयुक्तप्रान्त तथा दक्षिण के कुछ भाग मे पाये जाते है । अन्त मे यहाँ कुछ अनार्य देशो के विषय में भी कह देना उचित होगा । जैन ग्रन्थो में अनार्य देशो की कई सूचियाँ श्राती है। दुर्भाग्य से ये मूचियाँ इतनी विकृत हो गई है कि ग्राज उन स्थलो का पता लगाना अत्यन्त कठिन हो गया है । इन ग्रन्थो मे लगभग ७५ अनार्य देशो अथवा उन देशो मे रहने वाली जातियो का उल्लेख आता है । ' उनमे से कुछ प्रदेश निम्नलिखित थे. वाहल अथवा वाह्लीक देश की राजधानी तक्षशिला थी । कहते है कि ऋषभनाथ वहलि, अडम्व ' ( अम्वड) और इल्ला नामक अनार्य देशो में विहार करते हुए गजपुर ( हस्तिनापुर ) पहुँचे। इस देश के घोडे वहुत अच्छे होते थे । इस देश की पहचान वाल्ख से की जाती हैं, जो वैक्ट्रिया की राजवानी थी । चिलात (किरात) का दूसरा नाम ग्रावाड था । ये लोग उत्तर में रहते थे और प्रासाद, शख, सवारी, दास, पशु, सोना, चाँदी से खूब सम्पन्न थे । चिलात बहुत शक्तिशाली थे और युद्ध की कला में अत्यन्त कुशल थे । कहते हैं, भरत चक्रवर्ती श्रीर चिलातो की सेना मे परस्पर सग्राम हुआ, जिसमे चिलात लोग हार गये ।' जवण ( यवन) एक बहुत सुन्दर देश माना गया है, जो विविध रत्न, मणि और सुवर्ण का खजाना था । भरत की दिग्विजय में इस देश का उल्लेख श्राता है ।' कवोज देश के घोडे प्रसिद्ध होते थे । काश्मीर के उत्तर में घालछा प्रदेश को प्राचीन कवोज माना जाता है ।' पारस (पगिया) व्यापार का एक वडा केन्द्र था, जहाँ व्यापारी लोग दूर-दूर से व्यापार के लिए श्राते थे ।' इस देश मे 'देखिए भगवती ३.२, प्रश्नव्याकरण, पृ० ४१; प्रज्ञापनासूत्र १६४, सूत्रकृताग टीका ५.१, पृ० १२२ श्र, उत्तराध्ययन टीका १०, पृ० १६१ श्र, प्रवचनसारोद्वार पृ० ४४५, नायाधम्मका १, पृ० २१, रायपसेणियसूत्र २१०, श्रपपातिकसूत्र ३३, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ४३, पृ० १८५: निशीथ चूर्णि ८, पृ० ५२३ २ श्रावश्यक चूर्ण, पृ० १८० वही पृ० १६२ 'श्रावश्यक निर्युक्ति ६७६ 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ५६, पृ० २३१ ५ श्रावश्यक चूणि, पृ० १६१ 'रायपसेणियसूत्र १६० 'भारतभूमि और उसके निवासी, प० जयचन्द्र विद्यालकार, पृ० १६२ 'श्रावश्यक चूर्णि, पृ० ४४८ ५ 13 १
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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