SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ स्थलो पर आता है । यहाँ अत्यधिक शीत होने के कारण जैन साधुओ को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी गई थी । ' श्रवणबेलगोला के गिलालेखो में गोल्ल और गोल्लाचार्य का उल्लेख होने से सम्भवत यह देश दक्षिण में ही होना चाहिए । गुन्टूर जिले मे गल्लर नदी पर स्थित गोलि प्राचीन गोल्ल देश मालूम होता है । इसके पश्चात् दक्षिण में तगरा नगरी जैन दृष्टि से महत्त्व की है। यहाँ राढाचार्य ने विहार किया था। उनके शिष्य उज्जयिनी से उनसे मिलने यहाँ आये थे । करकण्डूचरिय में इस नगरी का इतिहास मिलता है । हैद्राबाद रियासत के उस्मानाबाद जिले मे तेर नामक ग्राम को प्राचीन तगरा माना जाता है । तगरा आभीर देश की राजधानी थी।' इस देश में श्रार्य समित* और वज्रस्वामी ने' विहार किया था । यहाँ कण्हा ( कन्हन) और वेण्णा (वेन) नदियो के बीच में ब्रह्मद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ पाँचसो तापस रहते थे । इन तापसो ने जैन-दीक्षा धारण की थी और कल्पसूत्र मे जो वभदीविया शाखा का उल्लेख मिलता है," वह सम्भवत इन्ही श्रमणो द्वारा आरम्भ हुई थी । गुजरात और कच्छ मे प्राचीन काल मे जैनधर्म का वहुत कम प्रभाव मालूम होता है । भृगुकच्छ ( भरोच) को लाट देण का सौन्दर्य माना जाता था । यहाँ आचार्य वस्त्रभूति का विहार हुआ था ।' भृगुकच्छ व्यापार का केन्द्र था और यहाँ जल और स्थल दोनो मार्गो से माल आता-जाता था ।' बाद मे चलकर वलभि ( वाला) जैनश्रमणो का केन्द्र बना और यहाँ देवधिगणि क्षमाश्रमण के अधिपतित्व में जैन आगम ग्रन्थो का अन्तिम संस्करण तैयार किया गया ।" उत्तर गुजरात मे श्रानन्दपुर ( वडनगर ) जैन- श्रमणो का केन्द्र था । यहाँ से जैन श्रमण मथुरा तक विहार किया करते थे ।" कच्छ मे भी जैन साधुओ का प्रवेश हुआ था । यहाँ साधु गृहस्थ के साथ ठहर सकते थे । " इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म का जन्म विहार प्रान्त हुआ और वही वह फूला - फला । विहार में जैनधर्म पटना, बिहार, राजगिर, नालन्दा, गया, हजारीबाग, मानभूम, मुगेर, भागलपुर, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, मोतीहारी तथा सीतामढी आदि स्थानो में होता हुआ नेपाल पहुँचा । तत्पश्चात् उडीसा में कटक, भुवनेश्वर, पुरी आदि प्रदेशो से होकर बगाल में राजशाही, मुर्शिदाबाद, बर्दवान, बाकुरा, हुगली, हावडा, दलभूम, मिदनापुर, तामलुक आदि उत्तरपश्चिमी जिलो मे फैलकर कोमिल्ला तक पहुँच गया। इधर पूर्वीय सयुक्तप्रान्त में बनारस, अलाहावाद से आरम्भ होकर अयोध्या, गोरखपुर, गोडा, हरदोई, रामपुर आदि जिलो में फैलता हुआ मेरठ, बुलन्दशहर, मथुरा, आगरा प्रादि सयुक्तप्रान्त के पश्चिमी जिलो मे होकर रुहेलखंड मे फर्रुखाबाद, कन्नौज आदि तक चला गया । उत्तर मे तक्षशिला आदि प्रदेशो में पहुँचा और सिन्ध में फैला । राजपूताने मे जोधपुर, जयपुर, अलवर आदि प्रदेशो मे इसका प्रचार हुआ । तत्पश्चात् ग्वालियर, झाँसी तथा मध्य भारत मे भेलसा, मन्दसोर, उज्जैन आदि प्रदेशो में फैल गया। इसके बाद १ 'आचाराग चूर्णि, पृ० २७४ २ 'उत्तराध्ययन टीका २, पृ० २५ 'बृहत्कथाकोष, डॉ० उपाध्ये, १३८ ३६ 'आवश्यक टीका (मलय), पृ० ५१४ श्र । 'श्रावश्यक चूणि, पृ० ३६७ 'श्रावश्यक टीका (मलय) पृ० ५१४ श्र । कल्पसूत्र ८, पृ० २३३ ८ व्यवहारभाष्य ३ ५८ ९ 'वृहत्कल्पभाष्य १.१०६० १० 'ज्योतिष्करड टीका, पृ० ४१ " निशीय चूर्ण, ५, पृ० ४३४ १२ 'बृहत्कल्पभाष्य १.१२३६, विशेष चूर्णि । Y ५ $
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy