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________________ जैन-ग्रयों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २५१ असल में वात यह हुई कि प्राचीन काल में आजकल की तरह यात्रा के साधन सुलभ न होने से लोगो का भूगोलविषयक ज्ञान विकसित न हो सका। परन्तु इसके साथ ही श्रद्धालु भक्तों को यह भी समझाना जरूरी था कि हम भगोल-विज्ञान में भी पीछे नहीं हैं। इसके अतिरिक्त विविध देश, पर्वत, नदी आदि के ठीक-ठीक मापने आदि के साधन भी प्राचीन काल मे इतने सुलभ न थे। इतना होने पर भी आँखो-देखे स्थानो के विषय में सम्भवत हमारे पूर्व पुरुषो का ज्ञान ठीक कहा जा सकता हो, परन्तु जहाँ अदृष्ट स्थानो का प्रश्न आया वहाँ तो उनकी कल्पनाओ ने खूब उड़ानें मारी, और सख्यात-असख्यात योजन आदि की कल्पनाएँ कर विषय को खूब सज्जित और अलकृत बनाया गया। ___इतिहास बताता है कि अन्य विज्ञानो की तरह भूगोल-विज्ञान का भी शन-शनै विकास हुआ। ज्यो-ज्यो भारत का अन्य देशो के साथ व्यापार-सम्बन्ध वढा और व्यापारी लोग वाणिज्य के लिए अन्य देशो में गये, उन्हें दूसरे देशो के रीति-रिवाज आदि जानने का अवसर मिला और उन्होने स्वदेश लौटकर उस ज्ञान का प्रचार किया। इसी प्रकार धर्मोपदेश के लिए जनपद-विहार करने वाले जैन-श्रमणो ने भी भूगोल-विषयक ज्ञान को बढाया। वृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि देश-देशान्तर अमगा करने से साबुन की दर्शन-शुद्धि होती है तथा महान् आचार्य आदि की सगति से वे अपने आपको धर्म में अधिक स्थिर और विद्या-मन्त्र आदि की प्राप्ति कर सकते है। धर्मोपदेश के लिए साघु को नाना देशो की भाषा में कुशल होना चाहिए, जिससे वह उन-उन देशो के लोगो को उनकी भाषा में उपदेश दे सके। जनपद-परीक्षा करते समय कहा गया है कि साधु इस बात की जानकारी प्राप्त करे कि कौन से देश में किस प्रकार से धान्य की उत्पत्ति होती है कहां वर्षा से धान्य होते हैं, कहां नदी के पानी से होते है, कहां तालाव के पानी से होते है, कहाँ कुएं के पानी से होते है, कहां नदी की वाढ से होते हैं और कहाँ धान्य नाव में रोपे जाते हैं। इसी प्रकार साधु को यह जानना आवश्यक है कि कौन से देश में वाणिज्य से आजीविका चलती है और कहाँ के लोग खेती पर जीवित रहते हैं तथा कहाँ लोग मास-भक्षण करते है और कहां पुष्प-फल आदि का बहुतायत से उपयोग होता है। जैन-अन्थो से पता चलता है कि देश-विदेशो में जन-श्रमणो का विहार क्रम-क्रम से वढा। महावीर का जन्म कुडग्राम अथवा कुडपुर (आधुनिक वसुकुड) में हुआ था और उनका कार्यक्षेत्र अधिकतर मगध (विहार) ही रहा है। एक बार महावीर साकेत (अयोध्या)में सुभूमिभाग उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय उन्होने निम्नलिखित सूत्र कहा-"निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी साकेत के पूर्व में अग-मगध तक विहार कर सकते हैं, दक्षिण में कौशाम्बी तक विहार कर सकते है, पश्चिम में स्थूणा (स्थानेश्वर) तक विहार कर सकते है तथा उत्तर में कुणाला तक विहार कर सकते है। इतने ही क्षेत्र आर्यक्षेत्र है, इसके आगे नहीं। इतने ही क्षेत्रो मे साधुओ के ज्ञान-दर्शन और चारित्र अक्षुण्ण रह सकते है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में जैन-श्रमणो का विहार आधुनिक विहार और पूर्वीय और पश्चिमीय सयुक्तप्रान्त के कुछ भागो तक ही सीमित था, इसके वाहर उन्होने पाँव नही वढाया था। परन्तु कुछ समय पश्चात् राजा सम्प्रति के समय में जैन-श्रमणसघ के इतिहास में एक अद्भुत क्रान्ति हुई और जैन-श्रमण मगध की सीमा छोडकर दूर-दूर तक विहार करने लगे। राजा सम्प्रति नेत्रहीन कुणाल का पुत्र था, जो - चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, विन्दुसार का पौत्र तथा अशोक का पुत्र था। कहते हैं कि जब राजा अशोक पाटलिपुत्र में राज्य करते थे और कुमार कुणाल उज्जयिनी के सूवेदार थे तो अशोक ने कुणाल को एक पत्र लिखा कि "कुमार अव आठ वर्ष के हो गये है, इसलिए वे शीघ्र विद्याध्ययन आरम्भ करें (शीघ्रमधीयता कुमार)।" सयोगवश कुणाल की सौतेली ११-१२२६-१२३६ 'बृहत्कल्पसूत्र १.५०
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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