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________________ प्रेमी जी जीवन-परिचय इतने अपमान के बाद प्रेमीजी के लिए वहाँ कार्य करना असम्भव था । उन्होने तिजौरी की चाबियाँ काशली वाल जी के सामने रख दी और कहा, "मैं कल मे यहाँ काम नही करूंगा । एक बार जब अविश्वास हो गया तो फिर काम कैसे हो सकता है ?" ग्रथ- सम्पादन --- (कार्यालय में क्लर्की करते हुए प्रेमीजी को 'जैनमित्र' के सम्पादन से लेकर पत्र डाक मे छोडने तक का काम करना पडता था ।⟩पूज्यवर प० गोपालदासजी वरैय। बैंक का काम छोडकर मोरेना विद्यालय मे चले गये थे । 'जैन-मित्र’ के सम्पादक वही थे । सम्पादकीय लेख के लिए विषय-निर्देश कर देते थे, लेकिन लिखना सव प्रेमीजी को ही पडता था । इस कार्य - भार को वहन करते हुए प्रेमीजी ने 'ब्रह्मविलास' की भूमिका लिखी । यह ग्रन्थ उन दिनो छप रहा था । इसके अतिरिक्त प्रेमीजी ने 'दौलतपदसग्रह', 'जिनशतक' तथा 'बनारमी विलास' श्रादि का सम्पादन किया । प्रेमीजी की प्रतिभा के विकास के माधन अव निरन्तर जुटने लगे । इतना काम करते हुए भी प्रेमीजी ने सस्कृत पढने का समय निकाला श्रीर् जैन मन्दिर की पाठशाला में सुबह डेढ घटे संस्कृत का अभ्यास करने लगे । इसी ममय उन्होने गुजराती और मराठी भी सीखी और प० वाकलीवालजी मे बँगला का ज्ञान प्राप्त किया । वस्तुत वाकली - * वालजी ने प्रेमीजी को वडा सहारा दिया । यही कारण है कि प्रेमीजी उन्हें गुरुतुल्य मानते थे और प्राज भी उनकी प्रमा करते है । ० सन् १९०४ या ५ मे एक घटना और घटी। शोलापुर के श्री नाथारगजी गाधी ने सबसे पहले ग्रन्थ- प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ कराया था श्रीर पचास हज़ार के दान से एक प्रकाशन-सस्था खोली थी । उस समय शास्त्रो, पुराणो तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थो के छापे जाने के विरोध मे ज़ोर से प्रान्दोलन चल रहा था। सेठ रामचन्द्रजी नाथा ने अपने प्रकाशित हुए 'स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा', 'पंचाध्यायी' श्रादि ग्रन्थो की कुछ प्रतियाँ भेज दी थी, जो 'जैन- मित्र'कार्यालय की अलमारी मे रख दी गई थी। उन दिनो प्रत्येक जिनालय में प्रकाशित ग्रन्थ रखने पर प्रतिबन्ध था । 'जैनमित्र' का दफ्तर भोईवाडे के जैनमन्दिर के ऊपरी भाग मे था । मन्दिर मे जो लोग पूजा करते थे, उनमे से अधिकाश का पेगा दलाली था और वे सेठी और मुनीमो के दर्शन करने आते ही तैयार किये हुए श्रर्घ्यं पात्र उनके हाथो मे थमा देते थे । प्रेमीजी ने उनकी इम चेष्टा पर एक व्यग्यपूर्ण लेख 'पुजारीरत्रोन' नाम से लिखा, जो 'जैनमित्र' के मुख पृष्ठ पर छपा। उसे पढकर पुजारी आग बबूला हो गये और उनमे से मन्दिर के मुख्य पुजारी ने 'जैनमिन' की वह प्रति रूढिवादी सेठो को दिखाई । श्रक मे श्रीमतो की भी ग्रालोचना थी। इतना ही नही, पुजारी ने अलमारी में रक्खे प्रकाशित ग्रन्थ भी मेठो को दिखाये । परिणाम यह हुआ कि मेठो ने अलमारी से निकालकर ग्रन्थो को तो सड़क पर फेका ही, साथ ही आफिस का सामान भी बाहर फेक दिया । सेठ माणिकचन्द्रजी प्रान्तिक सभा के अध्यक्ष थे । हीराबाग उस समय बनकर तैयार ही हुआ था । उन्होने तुरन्त सभा के कार्यालय का हीरावाग मे प्रवन्ध कर दिया, जहां वह ग्राज तक चल रहा I स्वतंत्र जीवन और अध्यवसाय- प्रेमीजी ने अब स्वतन्त्र रूप से कुछ करने का निश्चय किया और प्रान्तिक सभा से त्याग पत्र दे दिया । प० धन्नालालजी कागलीवाल ने बहुतेरा समझाया, पर वे अपने निश्चय पर दृढ रहे । जब श्री गोपालदासजी वरैया ने भी बहुत दवाव डाला तो प्रेमीजी ने सिर्फ 'जैन- मिन' के सम्पादन कर देने का कार्य स्वीकार कर लिया । सभा की नौकरी छोडने ही प्रेमीजी को अनुवाद का बहुत-सा काम मिल गया । रामचन्द्र जैन ग्रन्थमाला के स्तम्भ मनसुखलाल खजी भाई ने गुजराती की 'मोक्षमाला' नाम की पुस्तक का अनुवाद उनसे कराया । प्रेमीजी ने डेढ मी पृष्ठ की पुस्तक का अनुवाद पन्द्रह-बीस दिन मे कर दिया और विशेषता यह कि गद्य का गद्य और पद्य का द्य में अनुवाद किया । पारिश्रमिक के रूप मे सत्तर-अस्सी रुपये प्रेमीजी को मिले। आशा से यह रकम कही अधिक
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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