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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ उन्नति के लिए वे निरन्तर उद्योग करते रहे। (अन्त में उन्हे खुरई से पाठ मील दूर खिमलासा नामक ग्राम म नायव मुरिस की जगह मिल गई। गई-वीती हालत मे भी मोहवरा माता-पिता इकलौते बेटे को अपने से अलग करने के लिए तैयार न थे, पर मीर साहव के समझाने-बुझाने पर वे राजी हो गये। यह सन् १८६८-६९ की वात है। उस समय प्रेमीजी की अवस्था सत्रह-अठारह वर्ष की थी। पोस्टमास्टरी इसी समय स्कूल के हेडमास्टर के छुट्टी जाने पर स्थानापन्न का कार्य करते हुए प्रेमीजी को स्थानीय पोस्टआफिस की पोस्टमास्टरी भी कुछ दिन सँभालनी पड़ी। इन दिनो प्रेमी जी का मासिक खर्च तीन रुपया था। शेष चार रुपये वे घर भेज देते थे। कर्म-निष्ठ प्रेमी जी छ मास खिमलामा और छ मास ढाना मे रहने के वाद प्रेमीजी ने नागपुर के एग्रीकल्चर स्कूल में वनस्पतिशास्त्र, रसायन-शास्त्र और कृषि-शास्त्र का अध्ययन किया। लेकिन घुटने मे वात का दर्द हो जाने के कारण परीक्षा दिये विना ही घर लौट आना पडा और तव दो-तीन महीने के वाद प्रापका तवादिला वडा तहसील मे कर दिया गया। वैमे भी वे आत्मिक विकास के साधन चाहते थे, जो यहाँ उपलब्ध न थे। अत वाहर जाकर किसी उपयुक्त स्थान मे कार्य करने का विचार करने लगे। भाग्य की वात कि बम्बई प्रान्तिक सभा में एक क्लर्क की जगह खाली हुई। पच्चीस रुपय मासिक वेतन था। प्रेमीजी ने प० पन्नालालजी बाकलीवाल के पास आवेदन-पत्र भेज दिया। स्वीकृति आ गई,पर जेब मे वम्बई जाने के लिए रेल-किराया तक न या । जैसे-तैसे उनके परिचित मेठ खूबचन्दजी ने टीप लिखा कर दस रुपये उधार दिये। इसी समय चाँदपुर के मालगुजार ने लगान न चुकने के कारण घर की कुडकी करवा ली। ऐमी विषम परिस्थिति में वैर्य धारण किये नये क्षेत्र में परीक्षण करने के लिए प्रेमीजी वम्बई को रवाना हुए। क्लर्की का जीवन यह सन् १९०१ की वात है। तीन वर्ष तक प्रेमीजी ने इस पद पर काम किया। वम्बई प्रान्तिक मभा में 'जनमित्र के भिवाय उपदेशकीय तथा तीर्थक्षेत्र-कमेटी का दफ्तर भी शामिल था। उन सवका काम भी प्रेमीजी को ही करना पड़ता था। __ उन दिनो सभा का आफिम भोईवाडे मे था, जिसकी देखभाल प० पन्नालालजी कागलीवाल करते थे। वे विद्वान्, गम्भीर और समझदार व्यक्ति थे। श्री लल्लूभाई प्रेमानन्द एल. सी० ई० प्रान्तिक सभा के मन्नी और चुन्नीलाल जवेरचन्द जौहरी तीर्थक्षेत्र कमेटी के मन्त्री थे। इसी काल में हाथरस का एक नवयुवक कार्यालय में आने-जाने लगा। वह बडा चलता-पुर्जा था। कुछ दिन वाद जब परिचय वढ गया तो एक रोज़ उसने सेठ माणिकचन्द्रजी से कहा कि प्रेमीजी तिजोरी में रखे धन का अपने काम में अनुचित उपयोग करते है। बात कुछ ऐसे ढग से कहीं गई कि सेठजी प्रभावित हो गये और एक दिन चुपचाप पहुँचकर तलाशी लेने की वात निश्चित हो गई। निश्चय के अनुसार एक दिन लल्लूभाई प्रेमानन्द एल० सी० ई० और चुन्नीलाल जवेरचन्दजी कार्यालय पहुंचे। जव वे गुजराती मे कुछ कानाफूसी करते ऊपर की मजिल पर चढ रहे थे, प्रेमीजी नीचे पानी पी रहे थे। वे भांप गये कि कुछ दाल में काला है। पानी पीकर ऊपर पहुंचे तो वे दोनो महानुभाव पूछ-ताछ कर रहे थे। प्रेमीजी के पहुंचते ही इन्होने रोजनामचा मांगकर देखा और तिजोरी खुलवाकर उस रोज की रोकडवाकी मिला देने को कहा। तिजोरी खोली गई तो रोकड में दसवीरा रुपये अधिक निकले । प्रश्न हुआ कि रोकड क्यो वढती है ? उत्तर में प्रेमीजी ने अपनी निजी हिसाव की नोट-बुक उनके सामने फेंक दी। रोकड पाना-पाई से ठीक मिल गई।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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