SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो महान संस्कृतियो का समन्वय २२५ ठीक ही लिखा है कि सेटपाल का गिरजा और वैस्टमिन्स्टर एवे अग्रेजी कला के उतने सच्चे नमूने नही है जितना ताज हिन्दुस्तानी कला का । लेकिन हैवल के इस मत से मै महमत नही हूँ कि हिन्दुस्तान में मुस्लिम वास्तुकला इस कारण ही महान हो सकी कि उसका विकाम उन हिन्दू कारीगरी के हाथी हुआ जो हिन्दू-संस्कृति मे डूबे हुए थे । इस देश में आने के पहले ही मुसलमान इस क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त कर चुके थे । मुस्लिम काल की भारतीय वास्तुकल। के पीछे इस्लामी प्रेरणा भी उतनी ही प्रवल है जितना हिन्दू प्रभाव । यह मुस्लिम प्रेरणा का ही परिणाम था कि उनके शासनकाल में वास्तुकला का इतना विकास हो सका । सर जॉन मार्शल का मत है कि पुरानी दिल्ली की कुव्वनुल इस्लाम मस्जिद और ताज के पवित्र और भव्य मकवरे की कल्पना मुस्लिम प्रभाव के विना नही की जा सकती । भारत की मुस्लिम कला की महानता इसी में है कि वह दो महान् सस्कृतियों के सम्मिश्रण का परिणाम है । चित्रकला के क्षेत्र में भी हम यही बात पाते हैं। मुगल चित्रकारो के सामने एक ओर तो अजन्ता की पद्धति थी, दूमरी थोर समरकन्द और हिरात, इस्सहान श्रीर वग़दाद के चित्रकारो की कृतियाँ थीं। दोनो के समन्वय से मुग़ल-कला का जन्म हुआ । अजन्ता की कला में एक विचित्र जीवन-शक्ति थी । समरकन्द और हिरात की कला में समन्वर, मन्तुलन और सामजस्य की भावना प्रमुख थी । दोनी के मिश्रण में जहाँ एक ओर दोनों की मूल प्रेरणाओ को कुछ क्षति पहुँची, वहाँ रग का रूप और रेखा की सवेदनशीलता निखर उठी । * शाहजहाँ के प्रमुख चित्रकारों में हमें एक ओर तो कल्याणदान, अनूप चतर और मनोहर के नाम मिलते है और दूसरी ओर मुहम्मद नादिर ममरक़न्दी मीर हाशिम और मुहम्मद फक़ीरुल्ला खां के । हिन्दू और मुसलमान कलाकारो ने मिलकर मुगल- चित्रकला को जन्म दिया था। डॉ० कुमारस्वामी और कुछ अन्य लेखको ने मुग़ल और राजपूत कलाओ में कुछ मूलभूत भेद बताने की चेष्टा की है, पर गहराई मे देखा जाये तो राजपूत कला, एक विभिन्न वातावरण में, मुग़ल-कला के सिद्धान्तो के प्रयोग का ही उदाहरण है । सत्रहवी शताब्दी मतभेद का प्रारभ हिन्दू और मुस्लिम सस्कृतियो मे सहयोग और समन्वय की जो प्रवृत्ति शताव्दियो की सीमाओ को लांघती हु दृढ़तर होती जा रही थी, सनहवी शताब्दी मे उसमे एक गहरी ठेस पहुँची । एक ओर तो कवीर, दादू और दूसरे सन्तों की वाणी द्वारा रूढिप्रियता और कट्टरता पर जो श्राक्रमण किया जा रहा था और दूसरी ओर भक्ति के आवेग में जो उच्छृङ्खलता फैलती जा रही थी, उसका प्रभाव सामाजिक सगठन पर अच्छा नही पड रहा था । इसकी प्रतिक्रियास्वरूप समाज की मर्यादा पर जोर देने वाले विचारक हमारे सामने याये । महाराष्ट्र के सन्तो का जोर समाज की मर्यादाओं को तोड फेंकने पर नही था, परन्तु उसमें रहते हुए सुधार करते रहने पर था। तुलसीदास और उनका रामचरितमानस तो सामाजिक उच्छृङ्खलता की प्रतिक्रिया के मानो प्रतीक ही है । धर्म का श्रावार लेकर समाज में सुबार करने की जो प्रवृत्ति बढती जा रही थी, उनका राजनैतिक स्तर पर आ जाना सहज-स्वाभाविक इसलिए था कि मुस्लिम शासन उन उदार प्रवृत्तियों के साथ, जिनका विरोध किया जा रहा था, इतना अधिक सम्वद्ध हो गया था कि उन्हें एक दूसरे से अलग नही कियी जा सकता था। इसी कारण मराठो और बुन्देलो, राजपूतो और सिखो में जो नई धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ जन्म ले रही थी, वे प्रवल होते ही मुगल साम्राज्य से जा टकराई । हिन्दू समाज में उत्तरोत्तर वढती हुई इन प्रवृत्तियो ने मुगल साम्राज्य को एक अजीव उलझन में डाल दिया । श्रवतक उमे हिन्दुओ का पूरा महयोग मिल रहा था, पर अब वे उससे न केवल कुछ खिच से चले, अपितु उन्होने अपने स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना करना प्रारम्भ किया । इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि मुग़ल शासन में मुसलमानो का एक ऐमा दल उठ खडा हुग्रा जिसने उसे कट्टर मुसलमानो की सस्था बनाने का प्रयत्न किया। इस विचार धारा का आरम्भ *P Brown Indian Painting २६
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy