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________________ ऋषिभिर्वहुधा गीतम् २१६ भिन्न-भिन्न आगमो के प्रति समन्वय और सहिष्णुता का भाव - यही तो सस्कृत युग अथवा विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी का सवमे महान् रचनात्मक भाव है, जिसने राष्ट्रीय संस्कृति के वैचित्र्य को एकता के साँचे में ढाला । जैनदर्शन के परम उद्भट ऋषि श्री मिद्वसेन दिवाकर ने अपने 'वेदवादद्वात्रिंशिका (बत्तीसी ) ' नामक ग्रन्थ मे उपनिषदो केमरस ज्ञान के प्रति भरपूर आस्था प्रकट की है। विक्रम की अष्टम शताब्दी के दिग्गज विद्वान् श्री हरिभद्र सूरि ने, जिनके पाडित्य का लोहा आज तक माना जाता है, स्पष्ट और निश्चित शब्दो में अपने निष्पक्षपात और ऋजुभाव को व्यक्त किया है पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष. कपिलादिषु । युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्य परिग्रह | "महावीर की वाणी के प्रति मेरा पक्षपात नही और न कपिल आदि दार्शनिक ऋषियो के प्रति मेरे मन में वैर भाव है । मेरा तो यही कहना है कि जिसका वचन युक्ति-पूर्वक हो उसे ही स्वीकार करो ।" परन्तु इस भाव का सबसे ऊँचा शिखर तो श्री हेमचन्द्राचार्य में मिलता है । हेमचन्द्र मध्यकालीन साहित्यिक मस्कृति के चमकते हुए होरे हैं। विक्रम को बारहवी शताब्दी में जैसी तेज आँख उनको प्राप्त हुई, वैसी अन्य किसी को नही । वस्तुत वे हिन्दी युग के प्रादि प्राचार्य है । उनकी 'देशी नाममाला' संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त ठेठ भाषा या हिन्दी के शब्दो का विलक्षण संग्रह-ग्रन्थ है । यह वडे हर्ष और सौभाग्य की बात है कि हेमचन्द्र इस प्रकार का एक देशी गब्दसग्रह हमारे लिए तैयार कर गये । हिन्दी के पूर्व युग अथवा भाषाओ के सन्धिकाल में रचे जाने के कारण उसका महत्त्व अत्यधिक है । विचार के क्षेत्र में भी एक प्रकार से हेमचन्द्र आगे आने वाले युग के ऋषि थे । हेमचन्द्र की समन्वय बुद्धि में हिन्दी के ग्राठ सौ वर्षो का रहस्य ढूंढा जा सकता है। प्रसिद्ध है कि महाराज कुमारपाल के साथ जिम समय हेमचन्द्र सोमनाथ के मन्दिर मे गये, उनके मुख से यह अमर उद्गार निकल पडा भववीजाकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ "समार रूपी वीज के अकुर को हरा करने वाले राग-द्वेष यादिक विकार, जिसके मिट चुके है, नेरा प्रणाम उसके लिए है, फिर वह ब्रह्मा, विष्णु, शिव या तीर्थकर, इनमें से कोई क्यो न हो ।" इस प्रकार की उदात्त वाणी धन्य है । जिन हृदयो में इस प्रकार की उदारता प्रकट हो वे धन्य है । इस प्रकार की भावना राष्ट्र के लिए अमृत वरसाती है । नई दिल्ली ] १ ऊपर लिखे हुए श्री हरिभद्र सूरि और हेमचन्द्राचार्य के वचनो के लिए हम श्री साराभाई मणिलाल नवाब के ऋणी है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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