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________________ २१८ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय को ढूंढ निकाला। राष्ट्रनवर्वन के मार्ग में मनुष्य की यह विजय ही सच्ची विजय है । इनी का हमारे नित्य जीवन के लिए वास्तविक मूल्य है । मौलिक एकता और समन्वय पर बल देने वाले विचार अनेक रूपो में हमारे माहित्य और इतिहास में प्रक्ट होते रहे है। अथर्ववेद (२०१३) में कहा है पश्यन्त्यस्याश्चरित पृथिव्या पृथइ नरो वहुधा मीमासमानाः। अर्यात-"इस विश्व का निर्माण करने वाली जो प्राणवारा है, उसकी बहुत प्रकार की अलग-अलग मीमासा विचारनील लोग करते हैं, पर उनमें विरोव या विप्रतित्ति नहीं है। कारण कि वे नव मन्तव्य विचारों के विकल्प मात्र हैं, मूलगत गक्ति या तत्त्व एक ही है।" उत्तरकालीन दर्शन इमी भेद को समन्वय प्रदान करने के लिए अनेक प्रकार से प्रयत्न करते हैं। ऐना प्रतीत होता है, जैसे भेद ने वित्रन से खिन्न होकर एकता की वाणी वार-बार प्रत्येक युग में ऊंचे स्वर ने पुकार उठनी है। अनेक देवताओं के जजाल में जब वुद्धि को कर्तव्याकर्तव्य की याह न लगी तो किनी तत्त्वदर्गी ने उस युग का समन्वयप्रवान गीत इन प्रकार प्रकट किया 'आकाग ने गिरा हुआ जल जैसे समुद्र की ओर वह जाता है, उसी प्रकार चाहे जिन देवता को प्रणाम करो नव का पर्यवनान केगव की भक्ति में है" आकाशात्पतित तोय यया गच्छति सागरम्। सर्वदेवनमस्कार. केशव प्रतिगच्छति ॥ अवश्य ही इन ग्लोक का केशव पद निजी इष्ट देवी का समन्वय करने वाले उसी एक महान् देव के लिए है, जिसके लिए प्रारम्भ मे ही कहा गया था--एक्मेवाद्वितीयम् । वह एक ही है, दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां नहीं है । वही एक आत्मा वह सुपर्ण या पक्षी है जिने विद्वान् (विप्र) कवियों ने नाना नामो ने कहा है सुपणं विप्रा कवयो वचोभिरेक सन्त बहुधा कल्पयन्ति । शव और वैष्णवो के पारस्परिक ववडरो ने इतिहास को काफी क्षुब्ध किया, परन्तु उस मन्यन के बीच मे भी युग की गणी ने प्रकट होकर पुकारा एकात्मने नमस्तुभ्यं हरये च हराय च अयवा कालिदास के शब्दो में___ एकव मूतिविभिदे त्रिधा सा सामान्यमेषा प्रयमावरत्वम् । (कुमार० ७४४४) "मच्ची बात तो यह है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक ही मूर्ति के तीन रूप हो गये है। इन सव में छोटेवडे की कल्पना निमार है।" परन्तु ममन्वय की यह प्रवृत्ति हिन्दू धर्म के सम्प्रदायो तक ही सीमित नहीं रही। वौद्ध और जैन धर्मों के प्रागण मे भी इस भाव ने अपना पूरा प्रभाव फैलाया। सर्वप्रथम तो हमारे इतिहास के स्वर्ण-युग के मवसे उत्कृष्ट और मेवावी विद्वान् महाकवि कालिदास ने ही युगवाणी के रूप में यह घोषणा की बहुधाप्यागमभिन्नाः पन्थान सिद्धिहतव.। त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया इवार्णवे ॥ __ (रघु० १०१२६) "जैसे गगाजी के सभी प्रवाह समुद्र में जा मिलते है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न गास्त्रो में कहे हुए सिद्धि प्राप्त कराने वाले अनेक मार्ग आप में ही जा पहुंचते है।"
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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