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________________ प्राचीन पार्यों का जलयात्रा-प्रेम २११ थे। इस काल में व्यापारिक यात्राओ के प्रचलित होने के प्रमाण वैदिक माहित्य मे पाये जाते है। ऐसे पणियो या व्यापारियो के उल्लेख मिलते है जो लोभवश अधिक धन-प्राप्ति के लिए अपने जहाज़ विदेशो को भेजते थे (ऋ० ॥४८॥३)। ऐसे लोगो की यह कहकर निन्दा की गई है कि 'ये धन के लालच से अपने जहाजो द्वारा सारे समुद्र को मथ डालते है' (११५६।२)। ऐसा अनुमान होता है कि वैदिक काल में भारत का समुद्री व्यापार चाल्डिया, मिश्र तथा बेबीलोन से होता था, क्योकि पश्चिमी जगत् में मिश्र की सभ्यता तथा सुमेरी लोगो की सभ्यता इस काल में उन्नत थी। आर्य-व्यापारियो के लिए 'देवपणि' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि 'पणि' शब्द शायद द्राविड या अनार्य व्यापारियो का सूचक है । पिछले वैदिक काल तथा महाकाव्य युग मे भी आर्यों के जलयात्रा-सम्बन्धी उल्लेख मिलते है । रामायण में जहाज़ो के द्वारा दक्षिण तथा पूर्व के द्वीपो और देशो में जाने के वर्णन मिलते है । किष्किन्धा काड मे सुग्रीव बानरो को पूर्व के द्वीपो में जाने का आदेश देता है (रामा० ४१४०।२३-५) । यही कोषकार द्वीप (?), यवद्वीप (जावा) तथा सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) में भी जाने को कहा गया है। आधुनिक लालसागर का प्राचीन नाम रामायण मे लोहितसागर आया है। इसी ग्रन्थ में एक जहाजी वेडे के युद्ध का वर्णन है, जिसमे कई सौ छोटी-बडी नौकाएँ प्रत्येक पक्ष में थी (रामा०४१८४१७८)। महाभारत मे भी जहाजो और नौकाओ के द्वारा जल-यात्रां के उल्लेख मिलते है। बौद्ध ग्रन्थो मे जल-यात्राओ के अनेक मनोरजक वर्णन मिलते है। वाबेरु जातक में भारत से बाबेरु (वेवीलोन) को भारतीय व्यापारियो के जाने का कथन है। समुद्दवनिज जातक, जनक जातक और बलाहस्स जातक में व्यापारियो की दीर्घ यात्राओ के आकर्षक वर्णन मिलते है। दीघनिकाय (१२२२२) मे छ महीने की लम्बी समुद्रयात्रा का वर्णन है। इन यात्रामो मे माझो लोग एक विशेष प्रकार के समुद्री-पक्षी अपने साथ रखते थे, जो समुद्री किनारो का पता अपने स्वामियो को देते थे। कुतुबनुमा का इस प्राचीन काल मे आविष्कार नही हुआ था और ये पक्षी ही कुतुबनुमा का काम देते थे। जातक ग्रन्थो से विदित होता है कि बौद्धकाल मे देश समृद्ध और धनधान्यपूर्ण था। इसका श्रेय देशी तथा विदेशी व्यापार को था। नगरो मे सब प्रकार की वस्तुएँ–अन्न, वस्त्र, तेल, सुगन्धित द्रव्य, सोना, चांदी, रत्ल आदि-थी। नगरो में व्यापारियो के सघ बन गये थे, जो "निगम' कहलाते थे और उनके मुखिया 'सेट्ठी' (श्रेष्ठी) कहाते थे। इस काल मे जहाजो के आकार और परिमाण के भी उल्लेख बौद्धग्रन्थो मे मिलते है। जनक जातक मे ऐसे जहाजो के वर्णन है, जिनमें सात-मात सौ यात्री बैठकर यात्रा के लिए गये थे। वि० पू० ४०० के लगभग सिंहलद्वीप से वहाँ का राजा विजय सात सौ यात्रियो को एक जहाज़ में बैठाकर बगाल के राजा सिंहबाहु के यहाँ गया। इन सख्याओ से जहाजो के आकार के बहुत बडे होने मे सन्देह नही। महावश, सुत्तपिटक, सयुक्तनिकाय, अगुत्तरनिकाय आदि ग्रन्थो मे भी बडे आकार वाले जहाजो तथा उन पर बैठकर यात्रार्थ जाने वाले वणिको के वर्णन मिलते है। मौर्य-शुग काल (३२५ ई० पू०-१०० ई० पू०) मे भारत की जल-यात्रा बहुत बढी। इस काल में मिश्र के टालेमी शासको ने पूर्वी देशो-विशेषत भारत-से व्यापार बढाने के लिए स्वेज नहर खोली, जिससे भारत से पश्चिमी देशो का यातायात लाल सागर के मार्ग से होने लगा। इस युग में भारत में देशी जहाजो तथा नौकायो का निर्माण बडी सख्या मे होता था। निअर्कस ने अपनी यात्रा के लिए उत्तरी पजाब की जातियो से नावे तैयार करवाई थी। टालेमी के कथनानुसार इन नौकाओ की सख्या दो हजार थी, जिन पर आठ सहस्र यात्री, सहस्रो घोडे तथा अन्य सामान लादकर इतनी दूर की यात्रा मे गये थे। मेगास्थनीज़ ने मौर्य-साम्राज्य के जहाज-निर्माताओ के समूह का उल्लेख किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (२।२८) से भी विदित होता है कि व्यापार के लिए एक अलग महकमा था, जिसकी व्यवस्था अन्य मुख्य महकमो की तरह अच्छे ढग से होती थी। शक सातवाहन तथा गुप्त-काल में भारत का विदेशो से व्यापार बहुत उन्नत हुआ। तत्कालीन साहित्य तथा विदेशी यात्रियो के वर्णन से भारतीयो के यात्रा-प्रेम, उनको व्यापार-कुशलता तथा तज्जनित भारतीय समृद्धि का पता
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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