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________________ हिन्दी कविता के कला-मण्डप श्री सुधीन्द्र एम० ए० पिछली अर्धगताब्दी से हिन्दी कविता मे जो प्रगति हुई है वह निस्सन्देह उदीयमान भारत-राष्ट्र की वाणी हिन्दी के सर्वथा अनुरूप ही है । काव्य के अनेक उपकरणो पर समीक्षको और समालोचको ने यथावसर प्रकाश डाला है, किन्तु अभीतक किसी ने यह दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न नही किया है कि हिन्दी के छन्द ने इस युग मे कितनी समृद्धि विभूति सचित की है। उसका मूल्याकन होना भी आवश्यक है । इस अर्ध शताब्दी मे हिन्दी कविता ने अपने विहार के लिए अत्यन्त मनोरम श्रौर भव्य कला-मडप संवारे है । कविता की रसात्मकता मे छन्दो का योग कम नही है । छन्द की गति ( लय) की मधुरिमा ऐसी मधुरिमा है, जो रसज्ञ Share भी 'गूंगे का गुड' ही रही है । हिन्दी के स्वनामधन्य कवि 'प्रसाद', पन्त, गुप्त, महादेवी तथा अन्य कविगणो की लेखनी से जो कविता प्रसूत हुई हैं, उसमे छन्द के इतने विविध प्रयोग हुए है कि उन्होने हिन्दी के 'छन्द प्रभाकर' कभी छोटा कर दिया है । कवि की दृष्टि 'प्रभाकर' की किरण से भी दूर पहुँची है और उसने छन्दो का एक नवीन छायालोक ही निर्मित कर दिया है । छन्द की मंदिर गति को स्वच्छन्द छन्द के कवि भी छोड नही सके, चाहे वे 'निराला' हो, चाहे सियारामशरण, या 'प्रसाद' या सोहनलाल द्विवेदी । इन छन्दो को प्रकृति में कई बातें विशेषत उल्लेखनीय है (१) ( मात्रिक छन्दो मे शास्त्रकारो ने लक्षण बताते समय उनके चरणान्त मे लघु गुरु आदि के क्रम का भी विधान कर दिया था, किन्तु कवि की प्रतिभा इस नियम में बद्ध न रह सकी और कला ने इन बन्धनो को सुघडता से दूर कर दिया । एक उदाहरण ले 'छन्दप्रभाकर' - कार 'हरिगीतिका' का लक्षण देते है--- । ऽ १२ . शृगार भूषण अन्त ल ग जन गाइए हरिगीतिका । अर्थात् १६, १२ पर यति और अन्त मे लघु गुरु होना चाहिए, किन्तु कवि (मैथिलीशरण गुप्त ) ने इस गति के नियम का भग करके भी इसकी सहज मधुरिमा को नष्ट नही होने दिया है, बढा ही दिया है मानस भवन में श्रार्यजन, जिसकी उतारें भारती । १४, १४, भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती । १४, १४, हे भद्रभावोद्भाविनी, हे भारती, हे भगवते ! १४, १४, सीतापते, सीतापते, गीतामते, गीतामते । १४, १४, ( भारतभारती ) इसी प्रकार वर्णिक छन्द सवैया मे भी लघु गुरु के कठिन वन्धन का त्याग कर कवि ने छन्द का सौन्दर्य द्विगुणित ही किया है · करने चले तग पतग जलाकर मिट्टी में मिट्टी मिला चुका हूँ । तम तोम का काम तमाम किया दुनिया को प्रकाश में ला चुका हूँ । नहीं चाह 'सनेही' सनेह की और सनेह में जो में जला चुका हूँ । ने का मुझे कुछ दुख नहीं, पथ सैकडो को दिखला चुका हूँ । - सनेही
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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