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________________ नईगढ़ी अदृष्ट ठाकुर गोपालशरण सिंह क्या तुम छिप सकते हो मन में ? " 1 ललित लता के मृदु श्रञ्चल में, विकसित नव-प्रसून के दल में, प्रतिविम्वित हिमकण के जल में तुम्हें देखता हूँ में सन्तत " पिक- कूजित कुसुमित कानन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? रत्नाकर, लिये सङ्ग में परम मनोहर, तारावलि - रूपी है नभ में छिप गया कलाधर, किन्तु देखता हूँ में तुमको चल-चपला मे ज्योतित धन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? जल की ललनाओ के घर में, गाते हुए मरस मृदु स्वर में, तुम हो छिपे तल सागर में, में देखा करता हूँ तुम को चञ्चल लहरो के नर्त्तन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? " जब में व्याकुल हो जाता हूँ, कहीं नहीं तुम को पाता हूँ। मिलनातुर हो घबराता हूँ, तब तुम श्राकर भर देते हो नव प्रकाश मेरे जीवन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? X Create C
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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