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________________ विक्रम और बेताल-कथा में तथ्यान्वेषण श्री सूर्यनारायण व्यास विक्रम सवत् की द्वि-सहस्राब्दी के उत्साह ने शिक्षित समुदाय मे एक सास्कृतिक चेतना ही जाग्रत कर दी है। साहित्य के विभिन्न अगो पर इस अवसर पर जितना विक्रम के विषय में लिखा गया है, उतना शायद ही किसी समय लिखा गया हो। यदि यह सव साहित्य एक जगह एकत्रित किया जावे तो निस्सन्देह पांच हजार से अधिक पृष्ठो की सामग्री हो जावेगी और उससे विक्रमादित्य-सम्बन्धी जिज्ञासा के समाधान में पर्याप्त सहायता मिलेगी। विक्रमादित्यविषयक विविध कल्पनाएँ हजारो मील दूर बसने वाले विदेशी विमर्शको ने तो जव-तव की भी है, पर हमारे देश का मुख्यत महाराष्ट्र प्रान्त तथा कुछ अशो में गुजरात और वगालही इन शास्त्रीय चर्चामो में रस लेते रहे है और विदेशियो की धारणामो को भ्रान्त सिद्ध करते रहे है। डा० जायसवाल या मजूमदार प्रभृति महानुभाव भी इस दिशा में सजग रहे है । महाराष्ट्रीय और वगीय विद्वानो की इस विवेचनात्मक प्रवृत्ति का परिचय विद्वद्वर स्व० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी हिन्दी-भाषी-ससार को प्राय देते रहते थे, परन्तु इतर प्रान्तीय पडितो ने इस दिशा में कम ही अभिरुचि प्रकट की है। महाराष्ट्र की जागरूकता आज भी यथापूर्व है। विक्रम, कालिदास जैसी विश्व-वन्द्य विभूतियो के विपय में उनकी अध्ययन-शीलता नि सन्देह अभिनन्दनीय है। गुजरात और वगाल के ललित-साहित्य की आराधना में तत्पर रहते हुए भी वहाँ विक्रम और कालिदास के प्रति वडा अनुराग है । रवीन्द्रनाथ की विश्व-वन्दिता वाणी ने सहस्रो गीतोकी सृष्टिमे उज्जयिनी, विक्रम, कालिदास, शकतला, उर्वशी, कादम्बरी, वासवदत्ता को भुलाया नहीं, बल्कि उनका इतनासरस वर्णन किया है कि पाठको का मन उस मधुरिमा में मस्त हुए बिना नही रहता। राजनीति और योग की सतत् साधना मे अरविन्द ने भी अपनी प्रतिभा का प्रसाद उक्त विषय पर प्रदान किया है, परन्तु विक्रम की द्वि-सहस्राब्दी के अवसर पर आज तो अजस्र वारा ही प्रवाहित हो रही है। विगत दो वर्षों के अन्दर जो साहित्य-सृजन हुआ है, उसमें अध्ययन और मौलिकता के मान से यद्यपि विषय-वस्तु की अधिकता नही है, तथापि अधिकाश विदेशी विमर्शको के विभिन्न मतो का सकलन और अपने शब्दो मे प्रकटीकरण उसमें अवश्य है। यह विचारको के लिए विभिन्न दृष्टिकोणो का समन्वय-साधक साहित्य है और यह हमारे लिए मार्ग प्रशस्त कर देने और विचारको को प्रेरणा देने का कार्य सुलभ कर सकता है। विक्रमादित्य-विषयक सहस्रश दन्तकथाएँ और लोकोक्तियाँ विभिन्न प्रान्तो में विविध भाषामो में यत्र-तत्र फैली हुई है। उनका समीकरण किया जाय तो वह भी अवश्य अनेक तथ्यो को प्रकाश मे ला सकती है। प्राकृत, सस्कृत, जैन, पाली तथा कथा-अन्थो में भी अनेक विचित्र और विस्मयकारी गाथाओ, का संग्रह है। ये सभी केवल निराधार रचनाएँ है, ऐसा तो नही कहा जा सकता। कथा-गाथानो मे तथ्यान्वेषण की प्रवृत्ति से हमने काम ही कब लिया है ? इन कथा-किंवदन्तियो ने न जाने कितनी पुरातन परम्परामो और सास्कृतिक सूत्रो का पोषण किया है। विक्रमादित्य की शतश रोचक कथाओ का साहित्य जैन श्वेताम्बरीय ग्रन्थो में अत्यधिक भरा पडा है । उसका साम्प्रदायिक आवरण हटाकर वस्तु-विमर्शक दृष्टि से अन्वेषण किया जाय तो अनेक अभिनव तथ्यो का स्वरूप प्रत्यक्ष हो सकता है । सस्कृत-साहित्य की कथा-कृतियो में अभी तक हमने रोचकता की दृष्टि ही रक्खी है, अन्वेषण की प्रवृत्ति को प्रेरणा नही दी। 'सिहासन द्वाविंशति' का हिन्दी रूपान्तर ही नही, सभी विश्वभाषामो में अनुवाद होकर जगत् के सामने आ चुका है । यह "सिंहासन-बत्तीसी' अपनी आकर्षक कथा के कारण ही जन-मन में प्रविष्ट हुई है, परन्तु बत्तीस पुतलियो वाले सिंहासन पर आसीन होने वाले 'विक्रम' की इस कथा में लोक-रजन के अतिरिक्त उसकी लोकप्रियता का और भी कुछ कारण हो सकता है, यह सोचने का हमने प्रयल नही किया।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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