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________________ १३८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ फैला ऊपर से वही गगनसंव को वह एक पवन छूता फिर क्यो मुझे श्राह । श्रकुलाहट, क्यो मुझको ही पीडा ? क्यो मुझको उन्मन पागलपन ? तुमको इतनी व्रीडा ? में जितना श्राता पास-पास तुम उड जाते हे श्वास- श्रास ? कहाँ खो दिया तुमने अपना सरल हृदय हे सुन्दर ? किस मानव ने तुम्हें दिखाया है सोने का पिंजर ? तुम दिन भर तर के कानो में अपनी विरह व्यथा कहते मुझे देखते ही सहसा क्यो रुक कर चुप हो जाते ? मेरी मानवता मुझे शाप मेरी मानवता मुझे पाप तुम्हें कभी विश्वास न होगा ऐसी मानवता पर ? मैं न तुम्हें क्या कभी देख पाऊँगा निज हाथो पर ? गायेंगे हम क्या फिर न कभी कठो में कठ मिलाकर काफल की छाया के नीचे में, तुम ऊँचे तरु पर एक साथ कहने हो --" काफल पाक्कू, काफल पाक्कू" मैने पाया है अविश्वास, भय, घृणा और दारुणोपहास ! श्रव कैसे मानव में तुमको, हे प्रिय, पास बुलाऊँगुजन स्वर में हृदय चीरकर कैसे श्राज बताऊँ ? होता भू पर में भरा फूल तज कर डाली के तीक्ष्ण शूल तव तो तुम आँसू भर मेरी सुख समाधि पर गातेतव तो दल उस रोमिल-उर का मृदु स्पर्श तो पाते ? पर में उन्मन रावण दानव ! मेरी तृष्णा वन जाती यदि वन में कोमल पल्लवित डालउस शय्या में रहकर निशि भर गाते तब तो तुम विहग-वाल 2 हो पाते मेरे आँसू यदि - मेघो के ये भरते लोचनधोते तब तो हे मेरे प्रिय मेरे आँसू तेरा श्रानन ? क्यो रोता में यो बार-वारक्यो होता में प्रतिपल अधीर । क्यो वहता अब तक अश्रु-नीर ! भगवन् मैं होऊँ खग-कुमार ! 2 } १०० १०४ ११३ १२१ १३४
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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