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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय रासो के विषय विश्लेषण से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसमे मुख्यतया दो ही घटनाओ का वर्णन है - एक तो पृथ्वीराज द्वारा सयोगिता-अपहरण का और दूसरे पृथ्वीराज तथा शहाबुद्दीन के अन्तिम युद्ध का । श्रन्य घटनाएँ तो गौण रूप से ही आई है । श्रत इनका वर्णन विस्तृत रूप से नही हुआ । लघु वाचना मे इन प्रधान घटनाओ का 'वर्णन कई-कई समयो में हुया है, किन्तु बृहद् वाचना में केवल एक-एक ही समय मे हुआ है और उसमे भी प्रक्षेप आ गये हैं । समय पाकर सयोगिता श्रपहरण की घटना इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे एक विस्तृत स्वतन्त्र' ग्रन्थ का रूप मिल गया जो चन्दवरदाई की ही रचना मानी गई है। लघु वाचना में महोबा वाली घटना का उल्लेख मात्र ही है, ' परन्तु वृहद् वाचना में यह एक पूर्ण समय लेती है और फिर इसे कई खडो वाले ग्रन्थ का श्राकार मिला, जिसके रचयिता के रूप मे चन्दवरदाई का ही नाम लिया जाता है । सम्भव है कि इसमें चन्द का एक भी शब्द न हो, क्योकि इसकी भाषा वहुत अर्वाचीन है । १३२ वाचनाओं का काल - क्रम -- इन वाचनाची के काल-क्रम का निर्धारण इनको प्रतियो के लिपिकाल के श्राधार पर हो सकता है । लघु वाचना की किसी भी प्रति में उसका लिपिकाल नही दिया, किन्तु उनमे से एक का अनुमान हो सकता है, क्योंकि वह अकबर के समकालीन प्रसिद्ध मन्त्री कर्मचन्द के पुत्र भागचन्द के लिए लिखी गई थी। कर्मचन्द का देहान्त स० १६५७ मे हुआ और वह स० १६४७ में वीकानेर छोड चुके थे । उनके पुत्र स० १६७९ में काम प्राये । इसलिए हमारी यह प्रति कम-से-कम स० १६७६ से पूर्व की हैं। श्री अगरचन्द नाहटा के कथनानुसार इस वाचना की दूसरी प्रति भी १७वी शताब्दी विक्रम की लिखित है और तीसरी दूसरी की प्रतिलिपि मात्र है ।" मध्यम वाचना की कुछ प्रतियो का लिपिकाल मिलता है और कुछ का नही। जिनका मिलता है वे विक्रम की अठारहवी शताब्दी की या उसके आसपास की लिखित है, जैसे स० १७३८, १७३६, १७५८, १७९२ की लिखित प्रतियाँ विद्यमान है । जिनमें लिपिकाल नही मिलता, वे दो सौ वर्ष पुरानी प्रतीत होती हैं। बृहद् वाचना की प्रतियो का लिपिकाल प्राय १६ शताव्दी विक्रम में हैं, किन्तु एक का स० १७४७ भी है। इससे ज्ञात होता है कि लघु वाचना १७वी शताब्दी विक्रम मे, मध्यम वाचना १८वी शताव्दी में श्रीर वृहद् वाचना १९वी शताब्दी में या क्रमश इनसे कुछ पूर्व विशेष प्रसिद्ध तथा प्रचलित हुईं। कहते है कि काशी नागरी प्रचारिणी सभा १७वी श० वि० की लिपिकालकृत बृहद्बाचना की प्रतियाँ 'इसकी प्रतियाँ बनारस तथा कलकत्ता में उपलब्ध है । देखिए रासो लघु वाचना समय ६, पद्य ५६ आरनी अजमेरि घुम्मि घवनी कमड मडोवर । भोरा रा मुर मुड दड दवनो अग्गी उविष्ट कर ॥ रत्य भरि यभ सीस अहर नि जल जुष्ट कॉलजर | क्रिप्पान चहु वान जान घनयो घर्नो पि गोरी घरा ॥ यहाँ पर भी महोबा का उल्लेख नहीं, अपितु कालिंजर का है । ' इसे 'परमालरासो' के नाम से नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया है । ४ 'इसकी अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार है---- मन्त्रीश्वर मडन तिलक, वच्छा वश भर भाग । करमचन्द सुत करम वड भागचन्द स्रव जाण ॥ १॥ तसु कारण लिखियो सही, पृथ्वीराज चरित्र । पढता सुख सर्पति सकल, मन सुख होवं मित्र ॥ २ ॥ शुभ भवतु ॥ " श्री अगरचंद नाहटा का उपर्युक्त लेख, पृ० २२ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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