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________________ हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्था १२५ स्थापित हो पाया था। सभी शब्द साधारण बोल-चाल के उच्चारण के अनुकरण पर लिखे गये है। उपरोक्त शब्दो में से मै समझता हूँ कि सब नही तो अधिकाश ऐसे होगे, जो आज भी ग्रामीण बोलियो में प्रयोग में आते होगे। साहित्य ने उन्हें परिमार्जन की दृष्टि से और ग्राम्यत्व दोष से बचने के लिए त्याज्य ठहरा दिया है। भारतेन्दु युग में ऐसे शतश शब्द होगे, जो आज भूले जा चुके है। 'हिन्दी-प्रदीप' में, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, तीन शैलियाँ शब्दप्रयोग की दृष्टि से काम में लाई गई थी और वे तीनो प्राय साथ मिलती चली जाती है । यो उनमें कोई नियम काम करता हुआ नही विदित होता, फिर भी जब वे साधारण टिप्पणियां लिखते हो तो वे ग्राम्यत्व की ओर झुकाव के साथ साधारण हिन्दी-सस्कृत-फारसी-उर्दू के शब्दो का प्रयोग करते चलते है। जब वे कोई विद्वत्ता की वात कहते होते है तो सस्कृत के शब्दो का प्रयोग बहुल हो उठता है और जव सरकारी व्यक्तियो की ओर दृष्टि डालकर कुछ लिखते है तो उर्दू-फारसी के शब्दो का पुट वढ जाता है। इससे भी विशेष नियम यह मिलता है कि जव लेखक मौज में आकर लिखता है तो शब्द की रगीनी पर उसकी दृष्टि रहती है और वह सभी ओर से विविध रग के शब्दो, मुहाविरो, कहावतो और उद्धरणो को लेकर अपने को सजा देता है। जब गम्भीर है तो सस्कृत और अंग्रेजी का पल्ला पकड लेता है। 'हिन्दी-प्रदीप' के मुखपृष्ठ पर यह सूचना रहती थी "विद्या, नाटक, समाचारावली, इतिहास, परिहास, साहित्य, दर्शन, राजसम्बन्धी इत्यादि के विषय में यो यह मासिक पत्रिका विविध विषय विभूपित थी। प्रत्येक अक में समाचार और परिहास तो प्राय आवश्यक से ही थे। राज-सम्बन्धी आलोचना भी अवश्य ही रहती थी। नाटक के एक-दो अंक भी रहते थे। कुछ काव्य भी रहता था। इसके अतिरिक्त कभी कोई विज्ञान की चर्चा, कभी आयुर्वेद या स्वास्थ्य विषयक, कभी धर्म या दर्शन-सम्बन्धी कमी इतिहास आदि सम्वन्धी निवन्य रहते थे। समाचारो के लिए एक या दो कालम रहते थे, इनमें समाचारो के साथ कभी-कभी सम्पादक मनोरजक टिप्पणी भी दे देता था । उदाहरणार्थ प्रयाग में दिवाली खूब मनाई जा रही है। इस समाचार को उसने यो दिया है ___"पुलिस इस्पेक्टर की कृपा से दिवाली यहां पन्दरहियो के पहिले से शुरू हो गई थी पर अव तो खूब ही गली-गली जुआ की धूम मची है, खैर लक्ष्मी तो रही न गई जो दीपमालिका कर महालक्ष्मी पूजनोत्सव हम लोग करते तो पूजनोत्साह कर लक्ष्मी को वहिन दरिद्रा ही का प्रावाहन सही। (पृ० १६, नवम्वर १८७८) ये समाचार कभी-कभी दूसरी पत्रिकाओ से उद्धृत करके भी दे दिये जाते थे, साथ मे उसका उल्लेख भी रहता था। इन अन्य पत्रो मे भी यही 'प्रदीप' जैसी शैली थी। समाचार मालोचना से परिवेष्टित रहता था "अंगरेजो के चरण-कमल जहां ही पधारेंगे वहां ही टैक्स की धूम मच जायगी। सइप्रेस अभी थोडे ही दिन इन्हें लिये हुआ पर टैक्स की असन्तोष ध्वनि सुन पडती है; टैक्स इनके जन्म का साथी है। वि०व०" किन्तु आलोचना करने की ओर अभिरुचि इतनी विशेष थी कि इस प्रकार समाचारो का सग्रह देना नियमित रूप से नहीं चल सकता था। पत्रिका में अधिकाश निवन्ध किसी-न-किसी विशेष घटना को लक्ष्य करके ही लिखा जाता था। इस काल के प्राय सभी निवन्धो में समय को बडी प्रवल छाप रहती थी। इस प्रकार सम्पादक अथवा लेखक के विचारो से श्रावृत होकर छोटे-छोटे लेखो का रूप धारण किये हुए समाचार पत्रिका में यत्र-तत्र विखरे मिलेंगे। शीर्षक देखकर आप जिसे कोई लेख या निवन्ध ममझेंगे, उसमे आगे पढने पर आपको किसी घटना की आलोचना मिलेगी, अथवा किसी वर्तमान तात्कालिक प्रवृत्ति पर छोटे। आपने शीर्षक देखा 'Fear and Respect' "भय और समुचितादर"-सोचा इस निवन्ध में भय और आदर पर दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक विचार सामग्री उपलब्ध होगी। प्रारभ में कुछ ऐसी सामग्री मिली भी। आपने पढ़ा
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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