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________________ मानव और मैं श्री उदयशकर भट्ट तिमिर में, प्रलय में, न तूफान में भी कदम ये रुके है, न रुक पायेंगे ही। . जगत् की सुबह से चला चल पडा मैं, अडी चोटियां पर न पीछे मुडा मै, न मै रुक सका बादलों की घटा में , चला आ रहा हूँ, न पीछे हटा मै। अड़ी थीं शिलाएँ, खडी झाडियां थीं, नदी थी तरगित, उधर खाडियां थीं, उफनती हुई पार करता सरित् को, चमकती हुई प्यार करता तडित् को, गगन चूमती औं उछलती लहर को, लिया वांध दिन-रात को, पल-प्रहर को, कदम से कदम बांध कर साथ मेरे, चली मृत्यु दिन-रात, साय-सबेरे । प्रगति रोक दे जो भला कौन ऐसा?--अडें विघ्न उनको निगल जायेंगे ही। जिघर में चला, बन गई राह मेरी, जहाँ हाथ रक्खा, वहीं चाह मेरी, चला पा रहा आस दिल में छिपाये,, किरण ने उतर कर नये पथ बनाये , इघर एक मेरा बहुत बन गया जब, अंधेरा उषा में मिला हंस गया जब , सभी सृष्टि के साज़ मैने सजाये, उदधि ने गरज जीत के गीत गाये, लिए एक कर सृष्टि-सहार पाया, लिये दूसरे सृष्टि व्यापार आया, सचाई मिली प्यार में मोड़ डाला, अहकार को शक्ति मे जोड डाला , सभी खूद अभिशाप आगे चला मै, स्वय गर्व की आग में हूँ जला मै। न फिर भी हटे पैर पीछे हमारे-चले थे, चले है, चले जायंगे ही। लगी आज प्रासाद में आग मेरे, विरोधी हुए आज अनुराग मेरे,
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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