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________________ 'बीच' को व्युत्पत्ति ७६ फलत 'विप्वञ्च- का अर्थ होता है "दोनो ओर, सव ओर, सर्वत्र" अथवा "दोनो ओर (सव पोर) जाने वाला, सर्वत्र व्याप्त"। इसी प्रकार "विषुवत्- शब्द के अर्थ है "दोनो ओर तुल्य भाग वाला, दो के मध्य म स्थित, सबके मध्य मे स्थित, केन्द्र", जो 'द्वीच-' के उपर्युक्त अर्यों से पूरी-पूरी समानता रखते हैं और उनकी युक्ति-युवतता सिद्ध करने है। 'विषुवद्-रेखा-'"पृथ्वी की मध्यरेखा" और 'विपुवद्-दिन- "वह दिन जब सूर्य मध्यरेखा पर आता है, और रात तथा दिन बगवर होते है" भी ध्यान देने योग्य है। साराश यह कि अर्थ की दृष्टि से 'दीच-' को प्रा० "विच्च' का पूर्वस्प मानना सभी तरह से सगत और न्याय्य है। ध्वनि की दृष्टि से भी म० 'द्वीच-' का प्रा० "विच्च' में परिवर्तित हो जाना नियमानुकूल है। प्राकृत के अनेक गन्दो में सस्कृत के 'द्वि-' के स्थान पर 'वि-' अथवा 'वि-' और सस्कृत 'द्वा-' के स्थान पर 'वा-' अथवा 'वा-'हो गया है। उदाहरण के लिए म० द्वि-'>प्रा० "वि' ('वि') "दूसरा", म० "द्विक-'>प्रा० "विअ- ("विप्र-') "युग्म, जोडा", स० "द्वितीय-'>प्रा. 'विइज्ज-(विइज्ज-') "दूमग", स० 'द्वादग-'>प्रा० 'वारस-' 'वारस', 'वारह', 'वाह', म. द्वाविंग-'> प्रा० 'वावीस-', 'वावीम-' "वाईस", स० 'द्वार-' > प्रा० 'वार- ('बार-') "द्वार", स. द्वारका-'>प्रा० 'वारगा-' 'वारगा-' इत्यादि । फलत म० 'द्वीच-' का भी प्रा० मे * 'वीच-' अथवा 'वीचबन सकता है । इसके बाद 'नीड' > "णिहु' की तरह (पृ० ६५ तथा टि० १)* 'वीच-' का 'विच्च-' बन जाना भी सर्वथा सम्भव है। इस प्रकार अर्य और रूप दोनो दृष्टियो मे प्रा० "विच्च' को स०* 'द्वीच-' से विकसित माना जा सकता है। प्रा० "विच्च' का विकास आधुनिक भारतीय आर्य भापानो मे कई रूपो में हुआ है-हिन्दी मे 'बीच', 'विच', पजावी में 'विच्च',गुजराती में "विचे','वचे', 'वच्चे', नेपाली में "विच' इत्यादि। इनमें से 'विच्च'> 'वीच'तो,प्राकृत का ह्रत्वस्वर+व्यञ्जनसयोग > हिन्दी आदि में दीर्घस्वर+एक व्यञ्जन, इस अत्यन्त व्यापक नियम के अनुसार, स्वाभाविक ही है। पजावी 'विच्च' भी, पजावी भापा की, प्राकृत के ह्रस्वम्वर-+व्यञ्जनसयोग को अपरिवर्तित रखने की सामान्य प्रवृत्ति के अनुकूल है। इसी प्रकार बज०, अवधी और नेपाली के 'विच' में पूर्वस्वर को दीर्घ किये बिना एक 'न्-' का लोप भी अमाधारण नहीं है। गुजगती 'वच्चे' प्रा० "विच्चे' (='विच्च' में) का और 'वच' ('वच-मा'="वीच में") "विच' का परिवर्तित स्प है। 'वीच' और 'मे' के अर्थ में व्रज मे 'विमे, विम, विसें, विपे, विष, विसे, विस' और गुज० में 'विशे', 'विपे' का भी प्रयोग होता है। इस शब्द का प्रारम्भिक स्पयदि 'विप 'वि' है तब तो स्पष्ट ही इसका सम्बन्ध सस्कृत के 'विपय' 'पिशेल ४४३ आदि । प्राकृत में 'व' . 'व' का विनिमय सुप्रसिद्ध है। 'तुलना के लिये, प्रा० 'कम्म'>हि. 'काम',प्रा० 'हत्य'>हि. 'हाय', प्रा० 'विस'>हि. 'वीस' इत्यादि। इस ध्वनि-परिवर्तन का परिणाम कभी-कभी यह होता है कि प्राकृत से विकसित हिन्दी प्रादि के शब्द उलट कर फिर उन संस्कृत शब्दो के सरूप हो जाते है, जिनसे प्राकृत शब्द विकसित हुए थे, जैसे स० 'पूजा-'>प्रा० 'पुज्जा'>हि० 'पूजा', स० 'एक'>प्रा० 'ऍक्क' > हि० 'एक', स०'तैल->प्रा० "तिल्ल'>हि० 'तेल', स० 'नीच'>प्रा० "णिच' > हि० 'नीच' इत्यादि । इसी प्रकार का परिवर्तन 'वीच' में माना जा सकता है-स० * 'द्वीच-'> प्रा० *'वीच-'>"विच्च-'> हि० 'वीच', जो ठीक 'नीच'>'णिच्च' > 'नीच' के ही समान है। "देखिये, सुनीतिकुमार चाटुा , "इडो-आर्यन ऐंड हिन्दी" (अहमदावाद, १९४२), पृ० ११४,१७० । "देखिये, सु० चाटा , "प्रॉरिजिन ऐंड डेवलपमेंट ऑव् द वेंगाली लैंग्वेज" (कलकत्ता, १९२६), पृ० १६० । "किन्तु आश्चर्य है कि यह शब्द न तो "हिन्दी-शब्द-सागर" में और न डा० धीरेन्द्र वर्मा के "व्रजभाषा व्याकरण" (इलाहाबाद, १९३७) में दिया गया है । प्रयोग के उदाहरण के लिये देखिये "सतसई-सप्तक" (श्यामसुन्दरदास द्वारा सम्पादित, इलाहाबाद, १६३१), पृ० २८८, वोहा १६ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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