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________________ ॐॐॐॐॐ ७६ ब्रह्मविलास में बहु पकरि भगावै करि बहु मान । तबै हंस चिंतें निज ज्ञान ॥ २०६ ॥ यह तो मोह कर वह जोर । मोको रहन न दे उहि ओर ॥ अब याको मैं भिष्टित करों । अप्रमत्तमें तब पग धरों ॥ २०७ ॥ तब हंसे थिरता अभ्यास । कीन्हीं ध्यान अगनिपरकाश ॥ जारीं शक्ति मोह की कई । महा जोरतें निर्बल भई ॥ २०८ ॥ हंस लयो निज बल परकास । कीन्हों अप्रमत्त पुर वास ॥ सुभट तीनं मोहके देरे । अरु परमाद सबै अप हरे ॥ २०९ ॥ तज्यो अहार विहार विलास । प्रथम करण कीनो अभ्यास ॥ सप्तम पुरके अंत अनूप । करै कर्ण चारित्र स्वरूप ॥ २१० ॥ आवै संग मोह दल लेय। पैं कछु जोर चलें नहिं जेय ॥ अब जिय अष्टम पुर पग धेरै मोह जुसंग गुप्त अनुसरे ॥ २११ ॥ करहि करण चेतन इह ठांव । दूजो कह्यो अपूरव नाव ॥ जेकबहूँ न भये परिणाम । ते इहि प्रगटे अष्टम ठाम || २१२ || अब चेतन नवमे पुर आय। जामें थिरता बहुत कहाय ॥ पूरव भाव चलहि जे कहीं । ते इह थानक हालै नहीं ॥ २१३ ॥ विधि करण तीसरो करै । तबै मोह मन चिंता धेरै ॥ यह तो जीते सव पुर जाय । मेरो जोर कडून बसाय ॥ २१४॥ दोहा. मोह सेन सब जोरिक, कीन्हों एक विचार ॥ परगट भये बनै नहीं, यह मारै निरधार || २१५ || ता 'सुभट लुकाय तुम, रहो पुरनके मांहि ॥ जो कहूँ आवै दावमें, तो तुम तजियो नाहिं ॥ २१६ ॥ ( १ ) नरक तिर्यंच और देव आयुको । (२) उपसमित किये । ( ३ ) अनिवृत्त करन नामके नवमें गुण स्थानमें । ede de de de opdo KPINKANANANde använETNAESIN VIRA
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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