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________________ QUÆFALANGVARAQANAQATEGOR रागादिक दूपण तजे, मन वच शीस नवाय, Tag Se Go वैराग्यपचीसिका. अथ वैराग्यपचीसिका लिख्यते । दोहा. १५ RANG वैरागी जिनदेव ॥ कीजे तिनकी सेव ॥ १ ॥ मुक्ति मूल वैराग ॥ जगत मूल यह राग है, मूल दुहुनको यह कह्यो, जाग सके तो जाग ॥ २ ॥ क्रोधमान माया धरत, लोभ सहित परिणाम || येही तेरे शत्रु हैं, समुझो आतमराम ॥ ३ ॥ इनही च्यारों शत्रुको, जो जीते जगमाहिं ॥ सो पावहि पथ मोक्षको, या धोखो नाहिं ॥ ४ ॥ जा लच्छीके काज तू, खोचत है निजधर्म ॥ सो लच्छी संग ना चलें, काहे भूलत भर्म ॥ ५ ॥ जा कुटुंवके हेत तू, करत अनेक उपाय || सो कुटंब अगनी लगा, तोकों देत जराय ॥ ६ ॥ पोपत है जा देहको, जोग त्रिविधिके लाय || सो तोकों छिंन एकमें, दगा देय खिर जायं ॥ ७ ॥ लच्छी साथ न अनुसरे, देह चलै नहिं संग ॥ काढ काढ़ सुजन हि करे, देख जगतके रंग ॥ ८ ॥ दुर्लभ दश दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय ॥ विषय सुखनके कारने, सर्वस चले गमाय ॥ ९ ॥ जगहिं फिरत कइ युग भये, सो कछु कियो विचार ॥ चेतन अव किन चेतह, नरभत्र लहि अतिसार ॥ १० ॥ ऐसे मति विभ्रम भई, विपयनि लागतः धाय ॥ के दिन के छिन के घरी, यह सुख थिर ठहराय ॥ ११ ॥ aanavat vas sports spots ● २२५
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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