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ब्रह्मविलासमें
कवित्त.. राग रु द्वेष मोहकी परणति, लगी अनादि जीव कहँ दोय । तिनको निमित पाय परमाणू, वंध होय वसु भेदहिं सोय ।। तिनत होय देह अरु इन्द्रिय, तहाँ विप रस भुंजत लोय। तिनमें राग द्वेष जो उपजत, तिहँ संसारचक्र फिर होय ॥ ८॥
दोहा. रागादिक निर्णय कह्यो, थोरेमें समुझाय ॥ 'भैया' सम्यक नैनतें, लीज्यो सवहि लखाय ॥९॥
इति रागादिकनिर्णयाप्टक ।
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अथ पुण्यपापजगमूलपचीसिका लिख्यते.
दोहा. परमातम परतक्ष है, सिद्ध सकल अरहंत ॥ नितप्रति वंदों भावधर, कहूं जगत विरतंत ॥१॥
कवित्त. स्वामी श्रीमंधरजीके पाय पर ध्यानधर,वीनती करत भविदोक कर जोरकें । तुम जगदीश जग ईश तिहुं लोकनके, भक्त । जन संग किन लेहु अघ तोरकें ॥ देव सरवज्ञ सव जीवोंकी करत रक्षा, जीवनकी जाति हम कहें मद छोरकें । सेव इहिविधि करें
नाम हिरदै धरै, जपें जिनदेव जिनदेव वल फोरकें ॥२॥ है आगे मद माते गज पीछे फोज रही सज, देखें अरि जाय।
भज वसै बन बनमें । ऐसे वल जाके संग रूप तो वन्यो अनंग, चमू चतुरंग लखि कहै धन धन मैं| पुण्य जव खिस जाय परयो.ह परयो विललाय, पेट हून भरयो जाय पाप उदै तनमें । ऐसी WomanomenancomsanParencorpower
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