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________________ Korea १९२ 165 as del del dia as qe de Cabbag adhvali orator ब्रह्मविलास न नाश होय, देहके न नाश हंस नाच न बखानिये । देह दव पुगलकी चिदानंद ज्ञानमयी, दोऊ भिन्न भिन्न रूप 'भैया' उ र आनिये ॥ १० ॥ मात्रिक कवित. ग्यारह अंग पढै नव पूरव, मिथ्या वल जिय करहिं बखान । दे उपदेश भव्य समुझावत, ते पावत पदवी निर्वान | अपने उरमें मोह गहलता, नहिं उपजै सत्यारथ ज्ञान । ऐसे दरवश्रुतके पाठी, फिरहिं जगत भाखं भगवान ॥ ११ ॥ प्रश्न कवित्त, (अर्द्धांली ) दर्शन भ्रष्ट भ्रष्ट सोई चेतन, दर्शन भ्रष्ट सुक्त नहिं होय | चारित भ्रष्ट तरे भवसागर, यह अचरज पूछत शिशु कोय ॥१२ उत्तर चौपाई. तेरह विधि चारित जो धेरै । तिहँ विन तजे न भवद्धि तेरे ॥ जब ये भाव करहिं उर नाश । तब जिय हे मोक्षपद बात ॥ १३ कवित. 'मांस हाड़ लो सानि पूतरी बनाई काहु, चामसों लपेट तामें रोम केश लाये हैं । तामै मलमूत भर कृमि केई कोटि धर, रोग संचे कर कर लोकमे ले आये हैं। बोले वह खाउँ खाउं खाये विना गिर जाऊं, आगेको न धरों पाउं ताही पै लुभाये हैं । ऐसे भ्रम मोहने अनादिके भ्रमाचे जीव, देखे परतक्ष तोड मानो छाये हैं ॥ १४ ॥ चक्षु यह आश्चर्य चतुर्दशी, पडत अचंभो होय || भैया लोचन ज्ञानके, खुलत लख सब कोय ॥ १५ ॥ इति आश्चर्यचतुर्दशी. Vandres nisvana
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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