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________________ ॐॐॐॐॐ ब्रह्मविलास में १८२ याहीमें बनाई है । चारों गति चारों दाव फिरवो दशा विभाव, कर्मवतीं जीव सार मिल विछुराई है । तीनो योग पांसे परै ताके तैसे दाव परे, शुभ ओ अशुभ कर्म हार जीत गाई है। फिरवो न रह्यो जब कर्म खप जांहिं सब, पंचमि गति पावें ये 'भैया' ॐ प्रभुताई है ॥ १० देहके पवित्र किये आतमा पवित्र होय, ऐसे मूढ भूल रहे मिथ्याके भरममें। कुलके आचारको विचारै सोई जानै धर्म, कंद मूल खाये पुण्य पापके करममें || मूंडके मुंडाये गति देहके दगाये गति, रातनके खाये गति मानत धरममें । शस्त्रके धरैया देव शास्त्रको न जानै भेव, ऐसे हैं अवेव अरुमानत परम में || ११ || नदीके निहारतही आतमा निहारथो जाय, जो पै कोड ज्ञानवंत देखै दृष्टि धरकें | एक नीर नयो आय एक आगे चल्यो जाय, इहां थिर ठहराय रह्यो पूर भरकें ॥ ताहूमें कलोल कई भांतिकी तरंग उठे, विनसे पुनि ताहूमें अनेकधा उछरिकें । तैसें इह आतममें कई परिणाम होय, ऐसे परवान है अनंत शक्ति करके १२ जगतकै जीवन जिवावे जगदीश कोड, वाकी इच्छा आवै तव मार डारियतु है । वाहीके हुकुम सेती काज सब करै जीव, विना वाके हुकम न तृण डारियतु है ॥ करता सबनके करमनको वही आप, भोगता दुइमें कौन जो विचारियतु है । करता सो भोगता कि करे और भुँजै और, याको कछु उत्तर न सूधो धारियतु है ॥ १३ ॥ जोलों यह जीवके मिथ्यात्व दृष्टि लगि रही, तौलों सांच झूठ सूझे झुंठ सूझे सांच है। राग द्वेष विना देव ताहि कहै रागी देव, जीवको न जाने भेव, मानै तत्त्व पांच है ॥ वस्तुके स्वभावको eps
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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